आ जाऊंगा लौट के मै , जैसे होगा नया सबेरा ।
मै भी आहत हूँ बाणों से , जो नियति के हाथों छूटे हैं ।
घायल है मेरा अंतरमन , कुछ अपने भी मुझसे रूठे है ।
तन तो शायद सह जाता , मन नहीं चोट सह पाया है ।
कुटिल नियति की चालो ने , हमको बहुत सताया है ।
सोंचा था कुछ बातें होगी , गीत सुनेगें तुमसे हम ।
बाँहों में तुमको भरकर , सुन्दर सपने देखेंगे हम ।
लेकिन नियति निगोड़ी को , स्वीकार नहीं है ख़ुशी हमारी ।
रात चांदनी आती उससे , पहले आ गयी जाने की बारी ।
बनकर सौतन तेरी वो, जबरन मुझे बुलाती है ।
मुझको मेरे कर्तव्यों की , सौगंध याद दिलाती है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
मुझको मेरे कर्त्तव्यों की सौगंध याद दिलाती है...
मन को छूने वाली पंक्ति...कर्त्तव्य ही याद रहे तो फिर फसाद काहे के....
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