हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

तारतम्य कुछ टूट गया..

तारतम्य कुछ टूट गया ,
या लय ही शायद छूट गया  ।

या फिर शायद भूल गए हम ,
मन में आते बोलो को ।

शायद अब तक सीख ना पाए ,
शब्दों की परिभाषा हम ।

या फिर शायद समझ सके ना ,
मन के अपने भावो को हम । 

जो भी हो पर रूठ गया है ,
मन का मेरा भाव कोई....।

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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

आसान बहुत है रिश्ते जोड़ना...

मत याद करो मुझको तुम , मत एहसान करो मुझ पर तुम ।
यदि अपने से मै याद ना आऊ , मत खोजो मेरे कहने पर तुम ।
कब तक जबरन याद करोगे , यू कब तक मजबूर रहोगे तुम ।
बिना स्वतः इच्छा के भाई , यू कब तक साथ चलोगे तुम ।
हर रिश्ता होता है बंधन , जिसे हमें निभाना होता है ।
गम और ख़ुशी के पल को , हमें साझा करना होता है ।
अपनो को अपनेपन का , सदा एहसास करना होता है ।
यू आगे बढ़ कर अपनो का , हमें साथ निभाना होता है ।
कुछ जन्मजात के रिश्ते है , कुछ बनते दिल के रिश्ते है ।
कुछ मोल-भाव के रिश्ते है , कुछ बिना मोल के रिश्ते है ।
आसान बहुत है रिश्ते जोड़ना , मुश्किल उन्हें चलाते जाना ।
अपनो का दिल तोड़े बिना , जीवन भर साथ निभाते जाना ।
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शनिवार, 17 दिसंबर 2011

सिक्के के दो पहलू..

भाई मेरे मै क्या कहूँ , हर सिक्के के दो पहलू हैं ।
एक सामने दिखता है , एक छिपा रहता है पीछे ।
एक दिखाता जीत हमारी , एक छिपाता हार हमारी ।
एक लादता उपहारों से , एक काटता जाता जड़े हमारी ।
एक राह में फूल बिछाता , एक खोदता उसमे खायी ।
एक साथ कब दिखते हैं , सिक्के के दोनों पहलू भाई ।

हम स्वयं भी है सिक्के जैसे , दो रंग रूप है हममे समाये ।
चित भी अपना पट भी अपना , दोनों अपने मन को भाए ।


एक तरफ सब दया धर्म और , हैं नीति युक्त सब कर्म हमारे ।
एक तरफ जड़ बेईमानी की , मन के अन्दर कहीं जमाये ।
एक रूप है सबको दिखता , एक केवल अपनो को दिखता ।
तुम्हे चाहिए जैसा मै, वैसा तुम मुझको मानो भाई ।
मै तो सदा से कहता हूँ , दोनों पहलू देखो भाई ।
एक अकेला कहाँ है पूरा , कहाँ एक में सत्य समायी ।

आधी दुनिया बाकी हो जब , आधे में क्या मिलना भाई ।
आधी अधूरी बातो ने कब , जग में अपनी धाक जमाई ।

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रविवार, 4 दिसंबर 2011

ये कैसा दीवानापन है ?

उफ़ ! ये  कैसा दीवानापन है ,  तुमसे  ही   बेगानापन   है ।
बिन  तेरे  व्याकुल  हूँ  रहता , पाकर क्यों बेचैन मै रहता ।

हसरत भरी निगाहों से जिन्हें , हर पल मै देखा करता ।
फिर भी उनको पाकर क्यों , मै आधा अधूरा सा रहता ।
जिनसे करता अतिशय प्यार , जिनका मै दीवाना रहता ।
फिर भी उनको पाकर क्यों , खाली-खाली सा मै रहता ।

उनको भी एहसास है इसका , पर वो बात छुपाते है ।
शायद अपनी कमजोरी पर , मन ही मन घबड़ाते है ।
मेरा क्या मै हूँ बादल सा , उमड़-घुमड़ कर बरस ही पड़ता ।
जो भी आता मन में मेरे ,  कहे बिना मै रह नहीं सकता ।

बात समझता हूँ मै भी , ये बस मेरा दीवानापन है ।
पर नहीं समझ  मै पाता हूँ , फिर क्यों बेगानापन है ।

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गुरुवार, 10 नवंबर 2011

ये कैसा अपनापन है ?

कहते हो तुम मुझको अपना , एहसास कराते सदा यही ।
फिर भी राज छुपाते मुझसे , संशय नहीं मिटते दिल से ।
हर शब्द के दोहरे अर्थ खोजते , दोहरा चरित्र बनाये रखते ।
अपने जैसी ही मेरी भी , दिल में छवि बनाये रखते ।
तुम भले कहो इसे अपनापन, पर ये कैसा अपनापन है ?
इसे अपनापन कहे अगर तो , कहते किसे बेगानापन है ?

जब गले लगा न सके मिलकर , न दिल की बात कहें खुलकर ।
जब टीस छुपाये हम दिल की , न बात बताये अपने मन की ।
न खुल कर हम आरोप लगायें , न प्रश्नचिन्ह हम कोई बनाये ।
संबंधो की मर्यादा में रहकर , तीखे शब्दों के तीर चलाये ।
समझ सके न अपने से , क्यों विचलित है अपनो का दिल ।
फिर भी हम एहसास कराये , अपनो को अपनापन प्रतिदिन ।
ये बात सही है जीवन में , कुछ अंश चाहिए सबको निजता ।
लेकिन निज को निजता का , एहसास करना कहाँ उचित ?
मै कब कहता अपनेपन की , बस केवल मुझे जरुरत है ।
तुम झांको जरा अपने दिल में , क्या वहां नहीं मेरी सूरत है ?
निश्चित ही कही कमी है कोई , जो तुमको बदल न पाया हूँ ।
तेरा सब कुछ है बेगानों जैसा , फिर भी तुझको अपनाया हूँ ।
तेरे अपनेपन के आवरण को , मै अब तक भेद ना पाया हूँ ।
तुम भले कहो इसे अपनापन , पर  मै तुम्हे नहीं पा पाया हूँ ।


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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

जो देखा क्या वो सच ही था ?

एक नहीं अनेको बार मन में उठते हैं सवाल , जो देखा क्या वो सच था ?
या तपते हुए रेगिस्तान में , कोई मृग मारीचिका दिखने का भ्रम था ?
या थके हुए तन के मन का , वो देखा हुआ बस कोई स्वप्न था ?
जो भी था वो जैसा भी था , अभी निश्चय नहीं वो सच ही था ।
मन चाह रहा निश्चित कर लूं , तथ्य सभी सुनिश्चित कर लूं ।
भूले-विसरे घटनाक्रम को , मानस पटल पर स्मृति कर लूं  ।

पृष्टभूमि के सब रंगों को , नूतन कर फिर मै ताजा कर दूं ।
मृतप्राय हो चुके शब्दों को , स्वकंठ से फिर जीवित कर दूं ।
चहरे जिनकी पहचान नहीं , उस समय वहां हो पाई थी ।
या जिनके चेहरों पर , तथस्त भाव-भंगिमा बन आयी थी ।
उन सभी अब पहचान करूँ , कुछ के कल्पित नाम धरूँ । 
लेकिन आज सुनिश्चित कर लूं , जो भी था सबके मन में ।

जो घटित हुयी घटनाये थी , क्या उनका निश्चित क्रम था ?
फिर जो भी जैसी घटित हुयी , क्या सब पूर्व सुनिश्चित था ?
क्या वो था आघात कोई , जो मेरे लिए रचित था ?
या वो था अभिशाप कोई , जिसे मुझे देखना निश्चित था ?
जो भी था वो जैसा था , किसी दिवा-स्वप्न के जैसा था ।
निश्चित नहीं मुझे अब तक , जो देखा क्या वो सच ही था ।

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शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

पीने दो...

पीने दो मुझको जी भर , ना रोंको मुझको आज अभी 
दो चार ही प्याले टूटे है , मदिरा का है अम्बार अभी ।

मै तो आकर बैठा हूँ , दो चार पलो के पहले ही 
कुछ लोग यहाँ बैठे है , जो बिता चुके हैं युग ही ।
अब भी वो देखो प्यासे है , फिर माँग रहे हैं जाम अभी ।
मैंने तो बस चखा ही है , तर भी न हुए है ओंठ अभी ।
कैसे मै छोड़ कर उठ जाऊ , कैसे उस पार चला आऊ 
उस पार क़यामत व्यापी है , इस पार ही क्यों न बस जाऊ ।

तुम व्यर्थ में ही घबराते हो , क्यों उस पर मुझे बुलाते हो 
इस पार नहीं कोई बंदिश है , क्यों बंधन में फँसाते हो ।
इस पार बरसती हाला है , उस पार हर तरफ ज्वाला है ।
इस पार अभी मै होश में हूँ , उस पार सभी मदहोश ही है ।
फिर पीने दो कुछ जाम अभी , न व्यर्थ में नापो पैमानों से 
पहचान मै अपनी भूल गया , न पहचानो तुम मयखाने में ।

है अगर साथ देने का जज्बा , आओ बैठो साथ मेरे ।
वो देखो साकी आती है , देने को हाथो में जाम तेरे ।
आओ कुछ पल जी लो , तुम भी थोडा सा पी लो ।
अहंकार को भुला कर तुम , थोड़ी सादगी जी लो ।
पीकर ही तुम नमन करो , वर्ना तो झुंकता है बस तन ।
जब तक आँखे पुरनम ना हों , व्यर्थ झुंकाना है ये तन ।

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रविवार, 2 अक्तूबर 2011

खोखलापन...

जो सबको नियम सिखाते है , अक्सर वो ही उसे भुलाते हैं ।
जो सबको सच बतलाते है , अक्सर वो ही धोखा खाते है ।
जब तक कथनी और करनी का , वो मेल नहीं कर पाते है ।
तब तक बस घोंघा बसंत सा , वो जीवन जीते जाते है ।
वो कठिन दौर होता है जब , हम स्वयं पर नियम लगाते है ।
अपने बताये आदर्शो को , हम स्वयं आगे बढ़ कर निभाते हैं ।

यूँ तो औरो को निश दिन ही , हम नियम नए बतलाते हैं ।
उनको पालन करने की कुछ , तरकीबे उन्हें सुझाते हैं ।
अपने कोरे-कोरे आदर्शो की , हम पुस्तक कई छपाते है ।
लेकिन उनको अपने ऊपर , हम कितना लागू कर पाते है ।
जब तक कथनी और करनी का , हम मेल नहीं कर पाते हैं ।
तब तक खोखले तने सा तनकर , हम यूँ ही मुरझाते जाते है ।

वो कठिन दौर होता है जब , हम अपनो से धोखा खाते हैं ।
अपनी आत्मा बेंच कर शायद , हम उसका मूल्य चुकाते हैं ।
जब तक हम निज जीवन में , खोखलापन नहीं मिटाते हैं ।
तब तक अपने ही जीवन से , हम धोखा करते जाते हैं ।
जो सबको नियम सिखाते है , अक्सर वो ही उसे भुलाते हैं ।
जो सबको सच बतलाते है , अक्सर वो ही धोखा खाते है ।


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शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

एक और सितारा अस्त हो गया...

दुखद समाचार प्राप्त हुआ की पाकिस्तान के प्रख्यात कव्वाली गायक हाजी मकबूल साबरी साहेब का निधन हो गया, संगीत जगत का एक और जगमगाता सितारा अस्त हो गया l
हाजी मकबूल साबरी साहेब की याद मे:

(शायर साइ आजाद नें एक कल्पना को ग़ज़ल में तामीर किया:- " अगर पैसा बोल सकता तो क्या बोलता ?"
और उतनी ही खूबसूरती के साथ साबरी बंधुओं ने इसे गया है ।)

संसार में बाजे ढोल,
यह दुनिया मेरी तरह है गोल,
की पैसा बोलता है

कि पैसा क्या बोलता है... ?

हारून नें मुझको पूजा था,
फिरओँ भी मेरा शैदा था,
षड्दात की जन्नत मुझे मिली,
निम्रोड़ की ताक़त मुझसे बनी,
जब चढ़ गया मेरा खुमार,
खुदा के हो गये दावेदार,
कि पैसा बोलता है

हर शख्स है मेरे चक्कर में,
है मेरी ज़रूरत घर घर में,
जिसे चाहूं वो खुशहाल बने,
जिसे ठुकरा दूं कंगाल बने
यह शीशमहल, यह शान,
मेरे दम से पाए धनवान,
कि पैसा बोलता है

मैं आपस में लड़वाता हूँ ,
लालच में गला कटवता हूँ,
जहाँ मेरा साया लहराए,
कस्तूरी खून भी छुप जाए,
मैं कह देता हूँ साफ़ ,
मेरे हाथों में है इंसाफ़,
कि पैसा बोलता है

कहीं हदिया हूँ,कहीं रिश्वत हूँ,
कहीं गुंडा टॅक्स की सूरत हूँ,
कहीं मस्जिद का मैं चंदा हूँ,
कहीं ज्ञान का गोरखधंधा हूँ,
है पक्के मेरे यार,
मौलवी पंडित थांनेदार,
कि पैसा बोलता है

जब लीडर मैं बन जाता हूँ,
चक्कर में क़ौम को लाता हूँ,
फिर ऐसा जाल बिछाता हूँ,
की मन के मुरादेँ पाता हूँ,
मैं जिस पे लगा दूं नोट,
ना जाए बाहर उसका वोट,
कि पैसा बोलता है

कि हर साज़ में है संगीत मेरा,
फनकार के लब पे गीत मेरा,
हर रख्स में है रफ़्तार मेरी,
हर घुँगरू में झंकार मेरी,
यह महफ़िल यह सुर ताल,
हो गानेवाली या क़व्वाल,
कि पैसा बोलता है

और अंत में शायर अपने बारे में कहता है ...

कोई साइ था आबाद रहा,
मेरी जुल्फोँ से आज़ाद रहा,
हर दौर में ज़िंदाबाद रहा,
और दोनो जग में शाद रहा,
रब बख्से जिसे ईमान,
छुड़ाए मुझसे अपनी जान,
की पैसा बोलता है
===========

(साबरी साहेब की आत्मा को भगवान शांति प्रदान करे.....) 

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

तेरी बाते तू ही जाने..

तेरी बाते तू ही जाने , मै तो अपनी कहता हूँ ।
दिल की बाते तुम समझो , मै तो शब्दों में कहता हूँ ।
तुम बाते रखते हो दिल में , मै बात जुबाँ पर रखता हूँ ।
तुम साथ निभाते हो छुपकर , मै महफ़िल में संग रहता हूँ ।
किस पल की बात कहें हम तुमसे , हर पल ही तुम संग रहते हो ।
फिर दिल की बात कहें क्या  उनसे , जो स्वयं ही दिल में रहते हो । 



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बुधवार, 14 सितंबर 2011

जाने कितने सपने है , जाने कितनी मर्यादायें...

जाने कितने सपने है , जाने कितनी मर्यादायें ।
जाने कितने पूरे होंगे , कितने धूल-धूसरित होंगे ।

जग में अगणित सपने हैं , अगणित हैं मर्यादा भी ।
कुछ तो दिखते पूरे पूरे हैं , कुछ टूटे फूटे खंडित भी ।
कुछ की होनी है नवरचना , कुछ भूले बिसरे यही पड़े ।
कुछ राहों में हैं साथ खड़े , कुछ जंगल में हैं कहीं पड़े ।
कुछ ठोकर बने हैं राहों में , कुछ धारा में मोहताज पड़े ।
कुछ अपने बल पर यहाँ खड़े , कुछ मरुभूमि में दबे पड़े ।

कुछ अपने पास बुलाते हैं , कुछ दूर से ही डरवाते हैं ।
कुछ के होते हैं अन्वेषण , कुछ के होते बस शोषण है  ।
कुछ आपस में रहते संघर्षरत ,कुछ एक दूजे के पूरक हैं ।
कुछ की अपनी धाराये है , कुछ सब धाराओं में बहते  है ।
कुछ बिलकुल मेरे अपने है, कुछ सारे जग के सपने हैं ।

कुछ अपनो के भी सपने है , कुछ सपनों में भी अपने है ।

जाने कितने पूरे होंगे , कितने धुल धूसरित होंगे ।
जाने कितने सपने हैं और , जाने कितनी मर्यादायें ।

किस किस का मै हाल बताऊँ , किस किस का मै नाम गिनाऊँ.........


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रविवार, 11 सितंबर 2011

हम सभी इन्सान हैं..

भावनावों के भंवर में ,
डूब जाता आदमी ।
डोर रिश्तो की पकड़ ,
पार जाता आदमी ।

कौन है ऐसा यहाँ , 
भावना शून्य हो ।
मोह माया भूल कर ,
कष्टों से दूर हो ।

हम सभी इन्सान हैं ,
भावना प्रधान हैं ।
मान और अपमान के ,
मध्य विराजमान हैं ।


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शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

जाने भी दो यारो....

जाने भी दो यारो यह तो , पूर्व नियत था नहीं पता क्या।
जब मानव अजर अमर नहीं , रिश्ते क्षणभंगुर हुए तो क्या ।
यह भूल तुम्हारी अपनी थी , अभिनय को सच मान लिया ।
रिश्तो के सौदागर को , तुमने नाहक अपना मान लिया ।
यह रंग मंच है जिस पर , अभिनय नाना प्रकार के होते है ।
हर शब्द यहाँ है पूर्वनियत , हर भाव यहाँ बे-मानी है ।

इस रंग मंच की दुनिया में , केवल चरित्र ही मरता है ।
मत उदास हो व्यर्थ यहाँ , अभिनेता जीवित रहता है ।
उसका क्या उसको प्रतिदिन , एक सा अभिनय करना है ।
तुम अश्रु गिराने लगे अगर , जीवन कहाँ फिर चलना है ।
तारीफ करो अभिनेता की , कितना जीवंत रहा अभिनय है ।
भ्रमित हो गए देख जिसे , वो कितना महान अभिनेता है ।....१७/०८/२००४ 

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सोमवार, 29 अगस्त 2011

सत्य है इतिहास दोहराता है ...

इतिहास बताता है कि जे.पी. के आन्दोलन में उस समय के कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने पहले आरोप लगाया की सी.आई.ऐ. का हाथ है फिर आर.एस.एस. को भी जोड़ दिया , 

और वर्तमान में अन्ना के आन्दोलन में भी कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ( जिनकी सबने बारी बारी उतारी ) ने भी पहले अमेरिका का हाथ बताया फिर आर.एस.एस. को भी जोड़ दिया...


मगर न इतिहास में कांग्रेस के पास समझ थी न वर्तमान में बुद्धि समय से आयी.... 
अफसोस चिड़िया चुग गयी खेत !


जे.पी.आन्दोलन में भी बात चली थी... " यह अन्दर की बात है , पुलिस हमारे साथ है "
अन्ना के आन्दोलन में भी ... " यह अन्दर की बात थी , पुलिस जनता के साथ थी "


हाँ इतिहास हमेशा अपने को दोहराता है और इस क्रम में सभी को अक्सर दो-राहे पर लाता है , पर रास्ता तो एक ही सही होता है......!
तो जो समझदार होते है वो इतिहास से सबक लेकर पहले दिन से ही सही राह चुनते है, बाकी जो बने हुए नादान (ज्यादा बुद्धिमान) होते है वो लतियाये,जुतियाये जाने के बाद अपनी आन-मान-मर्यादा गवां कर सही रस्ते पर आते है .


और अब कुछ मन की भड़ास...जिसे फेसबुक पर कुछ देर पहले ही निकला है...

क्षमाँ करे माननीय प्रधानमंत्री जी ,
आपकी योग्यता और ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता है पर क्या करियेगा....?
काजल की कोठारी में कतनो जतन करो , कालिख तो तन पर लागे ही लागे मनमोहन भैया...
जैसे
कोई कितना हो जती , कोई कितना हो सती , कामनी के संग काम जागे ही जागे राहुल भैया...

राहुल बाबा का बस यही है नारा ...
हमें देखा था , हम देख रहे है , हम आगे भी देखेंगे..
ये नहीं हुवा है , ये नहीं हो रहा है , ये आगे भी नहीं होगा...
तभी तो जनता ने पहले यू.पी. और बिहार में कांग्रेस को पछाड़ा , आगे देखो कहाँ कहाँ है 
जाना लथाड़ा।

अरे हाँ स्वामी अग्नीवेश जी......परनाम (शब्द सही लिखा है) 
जब सब त्याग दिया तो ई मोबाइलवा का मोह कब छोड़ियेगा....? 
अब देखिये न इसके कारन आपकी बुढौती मा,
भगवा चुनरी में लागा हाईटेक चोर , 
ओ बाबा देखो खुल गया तेरा पोल..
बेहतर है स्वामी जी आप कोयले की दलाली में हाथ अजमावो और बंधुवा मजदूरी में नाम कमावो


और अब एक पत्र चोरो के नाम....
.
.
.
अरे अभी कहाँ लिखा , लिख रहा हूँ जल्दी ही पोस्ट करूँगा..
फ़िलहाल सोने का समय हो रहा है तो शुभ रात्रि...
पर चलते चलते....दोहरा दूँ 


एक अंगारा ही जंगल को जला देता है , नादां है वो जो शोलो को हवा देते है...!


शनिवार, 27 अगस्त 2011

तुझको बारम्बार सलाम ऐ अन्ना...

रात के अंधेरो में जो बिजलियाँ चमकती हैं ,
रास्तो पर वो अन्ना के रोशनी ही करती हैं।

चिलचिलाती धूप में जो बवंडर आते है ,
अन्ना के बदन को वो ठंडक पहुँचाते है ।

कडकडाती ठण्ड में जो कोहरे घने होते है ,
घेर कर अन्ना को मक्कारों से बचा लेते है ।

कौन कहता है की ज्वार कश्तियाँ डुबो देते है ,
वो सरफरोशो के जहाजो के रास्ते बना देते है ।

बदलो के झुण्ड जो सूरज यूँ को छुपा लेते है ,
आसमान के सीने पर इन्द्रधनुष दिखा देते है ।

कौन कहता है कि अँधेरा बस सबको निगल जाता है ,
घर की चौखट पर वो अन्ना सा दिया जला जाता है।

पूजता हूँ मै नहीं उगते सूरज को अकेले ,
डूबता सूरज भी हमें राह दिखा जाता है ।

पूजे वो बलवानो को जो चलते है औरो के बल पर ,
अन्ना जैसे भीषम पितामह चलते है अपने बल पर ।



तुझको बारम्बार सलाम ऐ अन्ना,

है तुझपर दिल कुर्बान ऐ अन्ना...

कुरुक्षेत्र में अडिग है तू भीष्म पितामह के जैसा...
मन मोहे तू सारे जग का कृष्ण कन्हैया के जैसा...

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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अरे देखो रे देखो भैया..

अरे देखो रे देखो भैया , दस दिन बाद आज अचानक देश में राहुल गाँधी नजर आये है..... माँ  के आँचल से निकल कर लोकपाल पर संसद में जादू की छड़ी घुमाने आये है !

तो राहुल गाँधी कहते है संसद में...
अन्ना का अनशन लोकतंत्र के लिए खतरा है !अरे ये लोकतंत्र के लिए खतरा हो या न हो स्विस बैंक में खाता रखने वालो के लिए जरूर खतरा है।

लोकपाल को संविधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए !
अरे पहले लोकपाल बनाने की तो बात कीजिये राहुल बाबा... आगे का हाल आगे देखा जायेगा ।

संसद सर्वोपरि है !
कौन मना कर रहा है कि संसद सर्वोपरि नहीं है ? देश लोकपाल मांग रहा है और संसद में मात्र तफरीह हो रही है क्या ये साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि संसद सर्वोपरि है ।

चुनी हुयी सरकार को अलग नहीं रखा जा सकता है !
अरे जनता की क्या औकात कि "सरकार" को अलग रखे... सरकार तो सरकार होती है । तभी तो अन्ना ने कहा है... " मॉल खाए मदारी , नाचे बन्दर "

अकेला लोकपाल भ्रष्टाचार को ख़त्म नहीं कर पायेगा , और लोकपाल भी भ्रष्ट हो सकता है !
अरे तो क्या यह सोंच कर भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए पहला कदम भी न उठाया जाय । और भ्रष्ट तो प्रधानमंत्री भी होते है तो क्यों नहीं उस पद को समाप्त कर देते हो ।

टैक्स चोरी रोंकने और राशन कार्ड, पेंशन आसानी से प्राप्त होने के लिए जैसे  भी ध्यान दिए जाने और कानून बनाये जाने की जरुरत है !
अरे राहुल बाबा सब सब चोरो का एक ही अब्बा...भ्रष्टाचार वही  ख़त्म करने का प्रयास करो सब अपने आप सही हो जायेगा  

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

क्या जन लोकपाल आ जाने से भ्रस्टाचार ख़त्म हो जायेगा..

बहुत से लोग पूंछते है....
क्या जन लोकपाल आ जाने से भ्रस्टाचार ख़त्म हो जायेगा...?
सारे लोग ईमानदार हो जायेंगे ?

तो मै इतना ही कहना चाहूँगा मेरे दोस्तों  यूँ तो सनातन काल से देश में पुलिस की भी व्यवस्था है तो क्या चोरी हत्या या बलात्कार रुक गया है......?
नहीं ना...!
मगर जिस दिन पुलिस  की व्यवस्था को ख़तम कर दिया जाय तो... सरे शाम चोरी होगी, सरे बाज़ार बलात्कार होगा...

तो जन लोकपाल भारत में राम राज्य या राजा हरिश्चंद्र का योग नहीं लायेगा मगर पता चलने पर भ्रष्टाचारियो के मुह में डंडा जरूर डाल कर जरूर उलट देगा.
और बाबा तुलसीदास ने भी भगवान रामचंद्र के हवाले से कहा है... "भय बिन होय ना प्रीत"

"मुह में डंडा" लिखने के लिए प्रबुद्ध जनो से आदर सहित खेद है.



अशोक रावत जी ने सच ही कहा है..
हम गुजरे कल की आँखों का सपना ही तो है....
क्यों माने सपना कोई साकार नहीं होता....

तो शिशुपाल सिंह जी की पंक्तियों के माध्यम से कहूँगा...
अगर चल सको साथ चलो तुम..
लेकिन मुझसे यह मत पूंछो , 
कितना चलकर आये हो तुम,
कितनी मंजिल शेष रह गयी.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

ये क्रांति नहीं अब रुकनी है...


जैसा मन भावन रूप तेरा , 
वैसी मन भावन बात तेरी ।
अन्ना तुझको नाम दिया , 
गाँधी का तुझे काम दिया ।

लो आज सजा फिर मंच तेरा , 
जनता बिछाती पलक पांवड़े ।
स्वागत है हे जनता जनार्दन , 
कर दो तुम सत्ता का मर्दन ।

अफसोस, नहीं हम पास तेरे , 
फिर भी हर पल हैं साथ तेरे ।
ये क्रांति नहीं अब रुकनी है , 
यहाँ विश्व की निगाहें टिकनी है ।



यह सम्राट अशोक की धरती है , 
सत्य,अहिंसा की यह जननी है ।
यहाँ गाँधी ने उपवास किया ,
और बुद्ध ने यहाँ वास किया ।

नमन तुझे है आज के गाँधी , 
आभार तेरे पथ प्रदर्शन को ।
मेरी आँखे तरस रही हैं कबसे  ,
तेरा दर्शन प्रत्यक्ष करने को ।

कटिबद्ध है तेरे संग हम सब , 
जन लोकपाल को लाने को ।
बिना रक्तमय क्रांति किये , 
भारत से भ्रष्टाचार मिटाने को ।

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हम साथ तेरे हमसफ़र...

हार कर तुम जिंदगी से , लौटना ना हमसफ़र ।
जब तलक है जिंदगी , हम साथ तेरे हमसफ़र ।
हम तुम्हे दिखलायेंगे , कैसे पलटती बाजियां ।
हम तुम्हे सिखलाएंगे , कैसे बनाते हैं किला ।

       साथ जो चलते यहाँ , निश्चित नहीं सब मित्र हों ।
       दूर जो दिखते तुम्हे , निश्चित नहीं सब शत्रु हों ।
       पहचानना सीखो जरा  , चाले जो यहाँ चल रहीं ।
       साथ ही तुम यह भी देखो , शह कहाँ से हो रही ।

               यूँ तो अक्सर प्यांदे भी , हैं बना देते नजीर ।
               गफलत में पिट जाते है , हाथी-घोड़े-ऊँट-वजीर ।
               तो जरा तुम सीख लो , करना सुरक्षा अपनो की । 
               फिर तोड़ भी सीख लेना , दूसरो के चक्रव्यूह की ।

                      गर कभी थकने लगाना , मुश्किलों के मोड़ पर । 
                      बस पलट कर देख लेना ,  जिंदगी के छोर पर । 
                      जब तलक है जिंदगी , हम साथ तेरे हमसफ़र ।
                      हार कर तुम जिंदगी से , लौटना ना हमसफ़र ।

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गुरुवार, 18 अगस्त 2011

त्रिकाल

१. 


अब मनमोहन 'सिंह' जैसे प्रधान मंत्री से यही सुनना बाकि रह गया था ..
" अन्ना के अनशन के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ हो सकता है.." 
अरे मै यह नहीं कहता कि यह असंभव है, कुछ भी हो सकता है....
मगर अगर एसा है तो बात गंभीर है , इसे साबित करो ना प्रधानमंत्री जी...
केवल जुबानी जमाखर्च क्यों ?
अरे तुम्हारी दर्जन भर सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसिया क्या हिजड़ो कि तरह से अपना हाथ ताली बजाने में लगाये हुए है...जो उन्हें आपकी विदेशी हाथ के बात को प्रमाण सहित साबित करने के लिए सबूत नहीं मिल रहा है ?

२. 

देखा आदरणीय योग गुरु बाबा रामदेव जी...
अगर आप उस दिन डरकर "सलवार समीज" पहन कर महिलाओं के झुण्ड में न भागते
और अपनी गिरफ़्तारी होने देते तो जो हाल आज दिल्ली का है और जो जन-सैलाब उमड़ा हुआ है..
वो तब उसी दिन आपके गिरफ़्तारी के साथ हो जाता और आपको भी यू बे-आबरू होकर अपना अनसन न तोड़ना पड़ता...
आपकी ये एक छोटी सी भूल आपके राजनैतिक कैरियर और आपके दम-ख़म पर हमेशा एक बदनुमा दाग की तरह रहेगा इसका मुझे हमेशा अफसोस होगा..पर क्या करे.. आपमें वो नैतिक बल नहीं था जो पहले "महात्मा गाँधी और जे.पी" में था और अब अन्ना हजारे में है...

३.



बाबा तुलसीदास ने सही कहा था...
"विनय न मानत जलधि जड़,गए तीन दिन बीत..
बोले राम सकोपि तब , भय बिन होय न प्रीति "
तो लीजिये आज फिर
रामलीला मैदान की साफ सफाई हो रही है..
जिनके अहंकार को फूँका जाना है वो अपने पुतलो के साथ तैयार खड़े है...
और जिन्हें फूँकना है वो भी धनुष बाण लेकर दल-बल के साथ आने ही वाले है...
जनता भी आ रही है...
संग
जनता जनार्दन भी आ रहे है...
देखते है ये आग कितने देर धधकती है और अपनी लपटों में कितनो को जलाती और झुलसाती है...


बुधवार, 17 अगस्त 2011

प्रश्नकाल...अन्ना अन्ना

मित्रो अगर हमें भारत को वास्तव भ्रस्टाचार से मुक्त बनाना है तो केवल दूसरो के भ्रष्टाचार के खिलाफ चीखने चिल्लाने और कानून बनवाने भर से  यह कार्य पूरा नहीं हो सकता जब तक सबसे पहले इसकी शुरुवात हम अपने आप से नहीं करते है, आत्मिक रूप से स्वयं को इसके लिए तैयार नहीं करते है.. ।

तो क्यों ना सबसे पहले स्वयं शपथ लीजिये कि.... 
हम आज से अपने जीवन में किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार में ना तो शामिल होंगे ना हीं उसका कारण बनेगे । भले ही उससे हमारा किसी भी प्रकार का हित क्यों न प्रभावित होता हो....।

मै शपथ पूर्वक पूरी तरह से तैयार हूँ......।
पर क्या आप सचमुच पूरी तरह तैयार है ?    
या सिर्फ टाइम पास करने के लिए, दूसरो पर रोब डालने के लिए "पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तरह  से बस " हम अन्ना अन्ना चिल्ला रहे है  ।

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

दोस्ती और दुश्मनी..

दोस्ती और दुश्मनी , दोनों को निभाने के लिए दिल में जज्बा , दिमाग में पैनापन और हौसले (जिगर) में मजबूती की जरूरत होती है..।

दोस्ती और दुश्मनी दोनों सीखने के लिए , महसूस करने के लिए और निभाने के लिए हमें एक दूसरे के नजदीक जाना पड़ता है , बीच की दूरियों को मिटाना पड़ता है और अपने दिल , दिमाग और नजर में उसे बसाना पड़ता है।

अगर दोस्ती दो दिलो को मिलाती है , दो जज्बातों के बीच एक पुल बनाती है........ तो दुश्मनी दो दिमागों को नजदीक लाती है और उनके इरादों के बीच की दीवार गिराती है।

जहाँ एक अच्छी दोस्ती कभी कभी हमारी रातो की नींद हराम करती है... वही एक बेहतरीन दुश्मनी अक्सर हमें चैन की नींद उपहार में देती है ।

ये हो सकता है कि आपके अच्छे दोस्त भी आपका साथ बुरे दिनों में छोड़ दे.... पर यह कभी नहीं होता है कभी आपके दुश्मन आपको भूल जाये ।

दोस्ती एक कमजोर और खोखली नींव पर भी खड़ी हो जाती है पर ... दुश्मनी सदैव एक मजबूत आधार पर ही टिकती है ।

दोस्ती में लोग अपनी आदतों को दूसरे पर थोपने की कोशिश करने लगते है और दुश्मनी में खुद से दूसरो की आदतों को जानने की कोशिश करते हैं ।

दोस्ती की चाहत रखना सरल है , करना आसान है पर वास्तव  में उसे निभाना कठिन है पर ..दुश्मनी की चाहत रखना कठिन है , करना आसान है और निभाना अत्यंत ही सरल है ।


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सोमवार, 15 अगस्त 2011

राष्ट्र का वही पुराना पर्व...

लो फिर आ गया मौसम , राष्ट्र के लिए नया कुछ कर जाने का ।
पुराने हो चुके भूले-बिसरे , चित्रों को साफ कर फिर लगाने का ।
पुरानी धूल-धूसरित मालाओं को , बदलकर फिर नयी लगाने का ।
खोजकर सिकुड़े-गुमचे पड़े झंडे को , धुलाकर फिर इस्त्री कराने का ।
कटे फटे बदरंग झंडे की जगह , गाँधी आश्रम से एक नया मंगाने का ।
और इस तरह राष्ट्रीयता से सराबोर , राष्ट्र का वही पुराना पर्व मनाने का ।

ये मत पूछो किस कारण से , ये पर्व आज मनाया जाने लगा ।
आजाद हुआ था गुलाम राष्ट्र , या संविधान नया बनाया गया ।
गड-मड हो गए हैं अंतर , परिभाषाये नव जनमानस भूल गया ।
छब्बीस जनवरी पंद्रह अगस्त , बस झंडा-रोहण  में बदल गया ।
उठे जागे और तैयार हुए , रो-गाकर पहुँच गए ध्वज-स्थल पर ।
फहराया झंडा गाया जन-गण-मन , आ गए पुन: वापस घर पर ।

जो अंतर है इन दोनों में , वो दूर-दर्शन पर जाकर सिमट गया ।
किसी एक में सज-धज कर , देखा दिल्ली में झांकी निकल गया ।
किसी एक में लाल किले से , देश के मुखिया का भाषण गुजर गया ।
और हमें नाहक क्या लेना-देना , जो इतिहास में पुराना बीत गाया ।
बस आज सबेरे सबको गाना , वही पुराना रटा रटाया भूला तराना ।
जनगणमन अधिनायक जय हे , आओ हमको देश की लाज बचाना ।

जल्दी करो देर हो रही जय है..., 
लड्डू तुरंत बंटाओ जय हे...।
कम से कम कुछ घंटों को जय हे.. ,
राष्ट्रीयता मिलकर निभाओ जय हे... ।
कल फिर करना काम हमें जय हे... ,
आज तो छुट्टी मनाये जय हे.....।

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शनिवार, 13 अगस्त 2011

नयी रीति नीति की बाते..

मुझे मिला था एक ज्योंतिषी  , 
जिसने भविष्य बताया मेरा ।
बोला जातक लिखा भाग्य में  ,
जल के प्राणी से अहित है तेरा ।
यूँ जल में रहते प्राणी बहुत ,  
मगर मगर सभी पर भारी है ।
तेरी किस्मत में शत्रु कई हैं , 
जो मगर के जैसे व्यवहारी है ।

तो बच के रहना जलाशय से , 
न अन्दर जाना उसके तुम ।
अगर कभी हो जाना जरूरी ,
मन में बैर न लाना तुम ।
दूर ही रहना सदा मगर से ,
ना उससे बैर निभाना तुम ।
कर सको अगर तो मगर से ,
सदा मित्रता निभाना तुम ।

मैंने कहा सुनो ऐ पंडित ,
रीत कहे तुम बहुत पुरानी ।
आवो तुम्हे बताता हूँ अब ,
नीति जो मैंने है अजमानी ।
प्रीति मुझे दिलवालो से है ,
नफ़रत दिल के कालो से है।
मगर भी उनमे ही आता है ,
मुझको कभी नहीं भाता है ।

आदत मगर की बहुत बुरी है ,
रिश्तो की उसे कहाँ पड़ी है ?
किया मित्रता अगर मगर से ,
मारे जाओगे तुम गफलत से ।
भूँख लगेगी जब उसे जोर से ,
खा जायेगा वो तुम्हे प्यार से ।
तुमको खाकर जब सुस्तायेगा ,
तेरी याद में झूंठे आंसू बहायेगा ।

तुम दूर ही रहना पानी से ,
हो डरते अगर दुश्मनी से ।
हो अगर जरुरी जल में जाना ,
तो मगर से सदा बैर निभाना ।
बैर करोगे जब तुम उससे ,
फिर सदा सचेत रहोगे उससे ।
फिर एक दिन वो भी आएगा ,
तेरे कारण परलोक वो पायेगा ।

जब कन्धा उसे लगाने जाना ,
चीख-चीख कर उसे मित्र बताना ।
हालाँकि है यह नीति उलट ,
पर देगी यही हालात पलट ।
कांटे का जबाब यह छूरी है ,
बल्लम का जबाब भाला है ।
कौटिल्य सानिध्य में रहकर ,
हाँ मैंने यह रीति निकाला है ।

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बुधवार, 10 अगस्त 2011

फिर साथ चले ?

खोल दो तुम द्वार दिल के , बाँह फैलावो जरा ।
तुमसे मिलने के लिए , द्वार पर हूँ मै खड़ा ।
तुमने भी सोचा न होगा , वापस मै फिर आऊंगा ।
भूल कर तेरी बेवफाई , तुझसे वफ़ा फिर चाहूँगा ।
क्या करूँ इन्सान हूँ , दिल से मै हैरान हूँ ।
आदते इन्सान की , पाकर मै बेहाल हूँ ।

जो हुआ वो भूल कर , क्यों न हम फिर साथ चले ?
क्या हुआ जो राह में , अवरोध है अब भी खड़े ।
तुमको लगता है अगर , तुम साथ मेरे चल पावोगे 
हाथ में अपने सदा , तुम हाथ मेरा पावोगे ।
तो सोंच लो एक बार फिर , मै द्वार पर तेरे खड़ा ।
तुझको गले लगाने को , मै बाँह फैलाये खड़ा ।



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रविवार, 7 अगस्त 2011

क्या है वश में आपके...

आप भले समझा करे , आप खुदा से कम नहीं ।
मैंने तो माना सदा , आप खुदा हो सकते नहीं ।

आप भले लगते हो सबको , लोगों के हैं भाग्य विधाता ।
आप भले ही दिखते हो , इस जग में अतुलित बलधामा ।
भले आपकी वाणी से , कम्पित होती धरती हो ।
भले आपकी इच्छा से , परिवर्तित होती सत्ता हो ।
लेकिन क्या है वश में आपके , गति रोंक सको दिवाकर की?
बदल सको दिशा काल की , पलट सको तुम लेख भाल की ।

जो भी हो तुम मानव हो , मत मानो स्वयं को खुदा अभी ।
मानवता भी पूरा पाए नहीं , दानवता ही जीते आये अभी ।

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क्यों बात घुमाते हो यारा..

जो बात है कहनी कह दो तुम , क्यों बात घुमाते हो यारा ।
जो बात जुबां पर मचल रही , क्या है वो कोई अफसाना ।
कुछ खास है शायद कहने को , बेचैन हो रहा तेरा चेहरा ।
ठण्ड से कांपती शाम में भी , क्यों लाल हो रहा है चेहरा ।
धड़क रहा है दिल तेरा जो , पहुँच रही है मुझ तक गूँज ।
कह दो जो कुछ कहना है , शब्दों को क्यों करते महरूम ।

यूँ जितना ज्यादा सोंचोगे , तुम उसमे उलझते जाओगे ।
मन की बातो में उलझे तो , तो दिल की ना कह पाओगे ।
दिल की बात सुनी जो ज्यादा ,  मन की ना कर पाओगे ।
जो बात हो कहने आये तुम ,  बात ना तुम कह पाओगे ।
समझ रहा हूँ तेरी व्यग्रता , पर क्यों हो तुम यूँ संशय में ।
किस बात के कारण जुबां तेरी , लरज रही सच कहने में ।

अब तो मै भी आतुर हूँ , है लगी फड़कने आँख मेरी ।
तेरे मन की सुनने को , व्याकुल है अब साँस मेरी ।
अच्छा-ख़राब है जो भी , सुनने को मै व्याकुल हूँ ।
तेरी व्यग्रता कम करने को , दोस्त मेरे मै आतुर हूँ ।
कह दो बिना भूमिका के , बात जो तुमको कहना है ।
मेरे दिल के मंदिर में , निश्चिन्त रहो तुम्हे रहना है ।

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शनिवार, 6 अगस्त 2011

पहेलियाँ..

जाने कब से मेरे मन के , अतृप्त किसी किनारे पर ।
आकर बैठ गयी है देखो , चाहत कोई अनजानी पर ?
यूं तो लगाती है वो मुझको, कुछ जानी पहचानी सी ।
शायद है वो मेरे मन  की ,  कोई अतृप्त  कहानी सी  ?
हाँ वही पुरानी अभिलाषाए , वही पुरानी चाहत फिर ।
लेकिन फिर भी शब्द नहीं , ना भाव वही पुराने फिर ?

मन के आँगन में निशदिन, कुछ बादल बन घुमड़ता  है ।
मन में उठती चाहत से , अब दिल भी बहुत झुलसता है ।
कैसी अजब कहानी है , ज्यों बिन वर्षा के बरसे पानी है ।
लगाती बहुत पुरानी है , पर अब भी अनकही कहानी है ।
 अपनो सी जब लगाती है वो , फिर भी क्यों अनजानी है  ।
समझ के भी मै समझ न पाता, अब यही मेरी कहानी है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

राज...

तुम लाख छिपाओ राज मगर , जग को पता चल जायेगा ।
आदर्शो का तेरा आडम्बर अब , अधिक नहीं चल पायेगा ।
जो कदम तुम्हारे भटक रहे , वो अपना बयां कह जायेंगे ।
तेरे पाखंडो के अवशेषों से , हम राज तुम्हारा पाएंगे ।

तुमने चुने जो सिपहसलार , वो ही तुम्हे भटकायेंगे ।
जब फंसेगी उनकी गर्दन तब , वो ही तुम्हे फंसायेंगे ।
अपनी जान बचाने के हित , बकरा तुम्हे बनायेंगे ।
तेरे पाप की सभी गगरिया , चौराहे पर लायेंगे ।

ये मत सोचो जग में तुम , सदा रहोगे अपराजित ।
शीश कटा कर औरों का , सदा रहोगे कालविजित ।
एक दिन वो भी आएगा, जब जग तुमको बिसरायेगा।
भूली बिसरी बातों में ही , फिर नाम तुम्हारा आएगा ।

(मूलतः अपने कार्य क्षेत्र में किसी को लक्ष्य कर कभी लिखा था इसे )
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शराफत की सीमा ?

मुझसे पूँछा किसी ने शरारत में .. 
क्या है मेरी शराफत की सीमा ?

मैंने मुस्कराकर जबाब दिया.. 
गोया अब क्या कहे अपने मुह से हम...
लोग कहते है.... 
शरीफ हूँ मै इतना कि.. 
शराफत मेरे चेहरे पर झलकती ही नहीं चेहरे से टपकती भी है ।

सुनकर वो मुस्कुराये और बोले , 
यार तब तो बड़ी मुश्किल होती होगी गुजर बसर करना....!
मैंने कहा... 
खुदा का शुक्र है यारों.. ,
शराफत अपने से टपक जाती है सारी , 
और फिर आप जैसो से निपटने में मुझे नहीं होती है लाचारी ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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