हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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रविवार, 1 दिसंबर 2013

अचानक...

आप इशारो से मुझको बुलाने लगे , मेरे सपनो में फिर आप आने लगे। 
मैंने सोंचा था थोडा सो लूँ मगर , आप मुझको फिर आकर जगाने लगे। 
अपने नाजुक हाथो के एहसास से , मेरे तन मन में सिरहन उठाने लगे।
मेरी सांसो में अपने बदन की महक , आप चुपके से आकर मिलाने लगे।
अपना मुखड़ा छुपाकर परदे में जब , आप नजदीकतर मेरे आने लगे। 
छिप गया चाँद बादलों की ओंट में , इसका दीदार मुझको कराने लगे। 

मेरे चहरे पर तेरी बिखरी लटे, जब घटाओं सी आकर छाने लगी। 
आने वाला है कोई तूफान अब , ये एहसास मुझको कराने लगी। 
सम्भलने की कोशिश करता मगर , झोंके बारिस की मुझको भिगाने लगी। 
किसी बेकाबू लहरो की भँवर सी , वो बहाकर मुझको ले जाने लगी। 
मेरे ओंठो पर दहकते लावे सा जब , तेरे ओंठो की  छुवन आने लगी। 
सपनो की दुनिया में नहीं हूँ मै , तू हकीकत में संग ये बताने लगी। 

आँखे खोली तो मै था तेरी बाँह में , मेरी बाँहो में फिर आप समाने लगी। 
मेरे सपनो में आप आती ही थी , अब हकीकत में भी पास आने लगी। 

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शनिवार, 30 नवंबर 2013

ना बेकल हो मेरे मन...

ना बेकल हो मेरे मन तू  इतना , समय की धारा  बहने दे। 
जो चीज लिखी जिस समय तुझे , वो समय पास तो आने दे। 
तेरे बस में केवल इतना , कर्तव्य निभाता अपना चल।
कंकर पत्थर काँटों को हटा , तू राह बनाता अपना चल।
है फूलो से जो प्यार तुझे , कलियो को ना मुरझाने दे। 
डाल से तोड़ कर उनको तू , राहों में कुचल ना जाने दे। 

हो अगर जरूरी तेरे लिए , कुछ मोहरों को पिट जाने दे। 
दो कदम हटा कर पीछे तू , फिर अपनी बारी आने दे। 
मोर्चे पर डटे रहना ही सदा , नहीं समय की होती माँग कभी। 
हो अगर जरूरी पीछे हट , दुश्मन को पहले पहचान अभी।   
मत जोश में खोना होश कभी , हर शब्द तौल कर तुम कहना। 
हर शब्द के कितने अर्थ यहाँ , तुम उसका ध्यान सदा रखना। 

क्या मिला है किसको अब तक , इससे तुमको लेना क्या ?
जो तुम्हे चाहिए उसके लिए , सोंचो तुमको करना क्या ?
तैयार रहो हर पल के लिए , कब कैसी समय की धार बहे। 
मझधार में नाव को खेने का , तुमसे समय की मांग रहे। 
ना बेकल हो मेरे मन तू  इतना , समय की धारा बहने दे। 
जो चीज लिखी जिस समय तुझे , वो समय पास तो आने दे। 

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बुधवार, 27 नवंबर 2013

कृपा करो...

चाह  रहा हूँ लिखना कुछ , अंत काल तक साथ रहे । 
बनकर वो इतिहास सदा , सदियो तक याद रहे। 
हर एक शब्द अनमोल रहे , हर शब्दो से नव प्राण जगे।
धूसर हो चुकी व्यवस्था में , हर एक शब्द नव क्रांति बने।
हर एक शब्द जो लिखे लेखनी , वो मेरी आत्मा से निकले। 
मानव मन के सभी भावो की , युगो युगो की प्यास बुझे। 

शोषित पीड़ित मानव की , वह एक सशक्त आवाज बने। 
देश काल  की सीमा से हट , वह सबका अधिकार बने। 
खण्ड-खण्ड कर दे वह जग में , फ़ैल रहे पाखण्डों को। 
झाड़ पोंछ कर करे सुसंस्कृत , सब धर्मो के पण्डो को। 
दे वह नूतन परिभाषाये , सब जीर्ण हो चुके ग्रंथो को। 
छाँट अलग कर दे सारे , कुत्सित जोड़े गए छेपक को। 

हर एक शब्द में प्राण रहे , हर एक शब्द में धड़कन हो। 
हर एक शब्द स्वयं गीत बने , हर शब्दो में संगीत बसे। 
हर एक शब्द स्वयं गोचर हो , हर शब्दो से नव राह दिखे। 
हर राह में वो सहयात्री बने , हर पथ के वो अन्वेषक हो। 
है यही चाह मेरे मन में अब , हे मातु सरस्वती कृपा करो। 
मुझ जैसे तुच्छ विचारक पर , तुम अपने अभय हाथ धरो। 

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

जागो पथिक..

नींद भले ही टूट गयी हो , स्वप्न अधूरे छूट गए हो ।
संकल्प अधूरा रहे न कोई , श्रम बल को माने सब कोई ।
स्वप्न तो केवल स्वप्न ही है , जिसका आधार ही कल्पित है ।
श्रम वो ठोस धरातल है , जिसका परिणाम सदा सुखित है ।
मन ज्यों होता है सजग , स्वप्न तभी खंडित होता ।
मन में जब कोई भ्रम होता , संकल्प तभी असहज होता ।

संकल्प और इस स्वप्नलोक का , केवल इतना नाता है ।
स्वप्न दिशा नव देता है , संकल्प सदा उसे पाता है ।
स्वप्न लक्ष्य सुझाता है , संकल्प विजित कर लाता है ।
फिर व्यर्थ व्यग्र ना रहो पथिक , स्वप्न तुम्हारा टूट गया ।
लो भोर हो रही है देखो , आती संकल्प निभाने की बेला ।
संकल्प सदा इतिहास बनाता , स्वप्न तो बस परिहास कराता ।

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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

क्या फर्क पड़ता है ?

मै क्यों तुम्हे खोजूं यूँ ही अपने से हर बार ?
मै क्यों तुम्हे बताऊ अपने से अपने मन का हाल ?
मै क्यों तुमसे पूंछू घेरकर तुम्हारा हाल-चाल ?
मै क्यों करूँ तुमसे जबरन सुख-दुःख का व्यपार ?
मै क्यों करूँ तुमको याद कर के परेशान बार-बार ?
जब नही है तुम्हे फुरसत अपनेपन को निभाने का यार ?

क्या फर्क पड़ता है तुम क्या हो रिश्ते में यार ?
तुम दोस्त हो , मेरे भाई हो, या हो तुम प्यार ?
मुझ पर तुम्हारा और तुम पर मेरा कितना है अधिकार ?
या कितने सुख-दुःख हमने साझा किये है पहले हर बार ?
कहो क्या फर्क पड़ता है अब इन सब बीती बातो से यार ?
जब नही है तुम्हे चाहत अपनापन निभाने का लगातार ?

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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

चंडूखाने (शोभन सरकार) की कहानी..

देश में थी दो दो सरकारे ।
हैरत सोती थी दो की दोनों सरकारे ।
एक को आया सोते-सोते सोने का सपना ।
सुन नींद में भागी दूजी लेकर कुदाल फावड़ा अपना ।
सोंचा सबने जो सपना सच हो जायेगा ।
सोने के भाव ताम्बे के बराबर हो जायेंगा ।

अपना रूपया डालर का बाप कहलायेगा ।
शोभन सरकार का नाम इतिहास में जायेगा ।
भारत सरकार फिर से चवन्नी का सिक्का चलाएगी ।
अपना देश अमीर हो फिर से सोने कि चिड़िया कहाएगी ।
मगर अफसोस न निकला सोना ।
दोनों सरकार का टूटा सपना ।

सब चंडूखाने(अफीम की दुकान) की हुयी कहानी ।
अब सुनाये दादा-दादी अपने बच्चो को कहानी.. ।

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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

प्रेम के विरागो पर...

प्रेम के विरागो पर , चाहे जितने लगाओ पहरे ।
प्रेम सदा होता ही रहा , प्रेम सदा होता ही रहेगा ।
लैला-मंजनू ,हीर और राँझा , प्रेम के ही दीवाने थे ।
दुनिया वाले कुछ भी कहें , वो प्रेम के ही परवाने थे ।
जो भी प्रेमी बन बैठा , जग की कहाँ उसको है खबर ।
प्रेम दीवानों की दुनिया में , बेगानों की कहाँ बसर ।

प्रेम के विरागो पर , जब जब पुष्प नया खिलता है ।
अपनी महक से वो , जग को सुगन्धित करता है ।
यूँ तो उगते रहते काँटे , प्रेम पुष्प संग डालो पर ।
नहीं रोंक पाते है वो , कलियों को मुस्काने पर ।
पूरे होते है वो ख्वाब , जो सच्चे दिल से देखे जाते ।
तुम भी थोड़ा प्रेम करो , इसका अवसर बिरले पाते ।

यदि राह रोंक कर बैठ गए , जिद पर अपनी अंटक गए ।
दरवाजे बंद करके अपने , कुछ हाँसिल ना कर पाओगे ।
पहले भी प्रेम विरागो पर , जग ने लगाये थे पहरे ।
जब जब प्रेम ने करवट ली , बिखर गए सारे पहरे।
जब प्रेम पुष्प मुस्काता है , शीश झुंकाना पड़ता जग को ।
भारी बोझिल मन से सही ,  प्रेम अपनाना पड़ता जग को ।

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

आग और राख..

राख के ढेर को, ना हिकारत से देखो।
आग की लपटे थी, वो कुछ देर पहले।
आग जलती जहाँ, राख पैदा वो करती।
राख  के ढेर में ही, छिपकर वो रहती।
कभी वो सुलगती, कभी वो धधकती।
कभी वो भयानक, लपटों में जलती।

अपनी तपिश में वो, है सबको जलाती।
चिनगारियो को वो, आँचल में छिपाती।
जलाकर सभी कुछ, फिर वो सिमटती।
मिटाकर सभी कुछ, राख का ढेर बनती।

ये बताती हमें है,नश्वर सब जगत में।
ना इतराओ तुम,इस नश्वर जगत में।

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बुधवार, 11 सितंबर 2013

मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती...

मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती , कौन रहना चाहता है उसके बिना ?
और बिना मह्त्वकांक्षाओं के कहो , मिला है किसी को कहाँ कुछ यहाँ ।
भले हो वो शासक किसी देश का , या हो वो सिपाही किसी भेष का ।
वो करता हो चाहे व्यापार कोई , या हो वो किसी का खरीददार कोई ।
देता भले हो जगत को वो शिक्षा , या लेने वो जाता हो स्वयं ही दीक्षा ।
चाहे लुटाता जगत को धरम हो , या अकेले निभाता अपना करम हो ।

अगर है जीवन में हमें कुछ करना , मह्त्वकांक्षी निश्चित ही होगा बनना ।
मगर ये तभी तक ख़ुशी हमको देती , जब तक गुलामी नहीं इसकी होती ।
बनता ये जिस दिन हमारा व्यसन है , उसी दिन गुलामी में शवसन है ।
फिर नचाने ये लगता पोरों पे अपनी , चलाने ये लगता राहों पे अपनी ।
जब हम लुटाते हैं आजादी अपनी , तभी हम बुलाते है बर्बादी अपनी ।
अच्छे और बुरे का हम अंतर भुलाते , किसी भी तरह से विजयश्री लाते ।

फिर मिटाते उन्ही को जो कल थे अपने , हमारे लिए जो बुनते थे सपने ।
फिर आता है वो पल हमारे लिए भी , जहाँ हम अपने किये को जिए भी ।
अच्छा है होना मह्त्वकांक्षी यारो , मगर उतना ही जो हित में हमारे ।
तभी हमको मिलती उससे ख़ुशी है , वही सबको देती सच्ची ख़ुशी है ।
उसी से हमारा वा जगत में सभी का , होता है सच में कल्याण थोड़ा ।
वरना भुलाकर हमको हमी से , मह्त्वकांक्षाये ही याद रहती है सारी ।

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रविवार, 1 सितंबर 2013

मेरा क्या मै तो हूँ मुसाफिर..?

सब उसका है , जग जिसका है ।
जीवन उसकी , मृत्यु भी उसकी ।
सुख भी उसका , दुःख भी उसका ।
धूप भी उसकी , छाँह भी उसकी ।
जल भी उसका , थल भी उसका ।
नगर भी उसका , गाँव भी उसका ।

मेरा क्या मै तो हूँ मुसाफिर , लेकर क्या मै आया था ?
मेरी सारी सुख सुविधा को , उसने ही तो जुटाया था ।
बिना दिए कुछ मूल्य किसी का , सब कुछ उससे पाया था ।
अफसोस उसे ही भुला दिया , जिसने सब कुछ लुटाया था ।
माया ठगनी है ही ऐसी , लोभ मोह में उलझाया था  ।
यहाँ अपना पराया कोई नहीं , सबने बस भरमाया था  ।

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शनिवार, 31 अगस्त 2013

बहुत मुश्किल है अब...

आज के इस अफरा तफरी , और भीड़ भरे इस संसार में ।
जब भुलाते जा रहे कर्तव्यों को , और लुटाते जा रहे आदर्शो को ।
जब मारते जा रहे अपनी आत्मा , बेंचते जा रहे अपने ईमान को ।
बहुत मुश्किल हो गया है बचा पाना , अपने अन्दर के इन्सान को ।
बार बार हुंकारता है अन्दर का , बलशाली होता शैतान यहाँ ।
दर दर की ठोकर खाता है , मानव के अन्दर का इन्सान यहाँ ।

ऐसे में बहुत मुश्किल है अब , इंसानियत का अस्तित्व बचा पाना ।
व्यवसायिक होती इस दुनिया में , उसको अब जीवित रख पाना ।
लालच-क्रोध-घृणा अभिमानो के , वारो से उसे बचा पाना ।
अपने स्वार्थ की बलि बेदी से , उसको सकुशल लौटा लाना ।
फिर भी अंतिम छण तक उसको , मै जीवित रखने की ठान रहा ।
लिखकर कागज पर व्यथा अपनी , मै उसको कुछ सांसे लौटा रहा ।

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सोमवार, 19 अगस्त 2013

कब ? कौन ? कहाँ ? कैसे ?

कब ?
        कौन ?
                 कहाँ ?
                          कैसे ?
                                   क्यों ?
                                           किसलिये ?
                                                      किसके लिये ?
                                                                   किसके कारण ?
                                                                              किसके साथ ?                                      
                                                                                         कब तक ?
               
हों जितने भी प्रश्न तुम्हारे मन में ,
उन सबको मुझे बताओ तुम !

काँटे से निकालता हूँ मै काँटा , 
प्रश्नों से मुक्त हो जाओगे तुम ।

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शनिवार, 17 अगस्त 2013

आसान नहीं है चलते रहना..

आसान नहीं है चलते रहना , तपते हुए रेतीले पथ पर ।
धूल भरी आंधी में भी , डिगना नहीं अपने पथ पर ।
अवशेष बचाए रखना अपने , छोड़े हुए पदचिन्हों का ।
महत्त्व बनाये रखना अपने , इतिहासों के पन्नो का ।

वो शूरबीर होते है जो , हर पल को हँस कर जीते है ।
प्रतिकूल हो रही स्थिति का , सदा सामना करते है ।
अपने श्रम से मरू-भूमि को , हरा भरा कर देते है ।
अपने अरि के मन में भी , सम्मान भाव भर देते है ।

आसान नहीं है सदा तैरना , उलटी बहती धारा को ।
चीर कर सीना लहरों का , अपनी मंजिल पाने को ।
अस्तित्व बचाए रखना, जल में बने प्रतिबिम्बों का ।
महत्व बचाए रखना , संघर्षो के हर एक पल का ।

वो महामानव होते है जो , हर धारा में खुश रहते है  ।
प्रतिकूल हो गए हालातो का , निश्चल हो सामना करते है ।
अपने रंग में रंग कर सबको , अपने सा कर लेते है ।
प्रतिद्वंदी के मन में भी , सहज भ्रात भाव भर देते है ।

आसान नहीं है मानव का , शूरबीर बन हर पल रहना ।
आसान नहीं है मानव का , महामानव सा हर पल जीना ।

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बुधवार, 14 अगस्त 2013

बाजी..

मैंने सुना कुछ लोग यहाँ , हर सांस में बाजी चलते है ।
चौपड़ के पासो के बदले , इंसानों की बाजी चलते हैं ।
वो दांव लगते जीवन का , जो होता नहीं उनका कभी ।
वो हर गोट फँसते ऐसी है , बच के कोई निकले ही नहीं ।
वो घेर कर बाजी चलते है , कोई घर नहीं खाली रखते है ।
वो रिश्तो का दांव चलाते है , सच झूंठ की गोट बढ़ाते है । 
बलि देकर प्यांदो के अरमां , सतरंज के वजीर बचाते है ।
सदा आड़ी-तिरछी चालो से , वो खेल का मजा उठाते है ।
सोंची-समझी चालो से वो , स्वयं की पहचान छिपाते है ।
गिरगिट जैसा रंग बदल कर , सबको धोखा देते जाते है ।
यूँ खेल बहुत ही अच्छा वो , आदतन खेलते जाते है ।
मगर कभी कभी वो भी , प्रतिद्वंदी गलत चुन जाते है । 
फिर चाहे जितने अज्ञाकारी , उनके विसात के प्यांदे हो ।
जब खुल कर सामने हम होंगे , किला बिखर ही जायेगा ।
साथ रहा हूँ जिनके सदा  , खेल उन्ही से उनका सीखा है ।
देख देख कर बाजी उनकी , हर दांव का तोड़ भी सीखा है ।
तो बेहतर है कह दो उनसे , ना मुझको ही गोट बनाये वो ।
चाल चलेगे जब हम अपनी , ना सहन मात कर पाएंगे वो ।
(पूर्व में कार्य-क्षेत्र से जुड़े हुए उदगार..)


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शनिवार, 3 अगस्त 2013

जीवन है माटी का लोंदा..

जीवन है माटी का लोंदा , पल पल रूप बदलता है ।
कभी ठोस चट्टान सा , कभी पल में ये बिखरता है ।
कभी ये गीली मिटटी सा , तृप्त स्वयं में रहता है ।
कभी आकाल की मिटटी सा , तकलीफों को सहता है ।
कभी आंधियां इसे उड़ा कर , दूर छोड़ कर आती हैं ।
कभी बाढ़ का पानी इसको , दूर देश ले जाती हैं ।

कभी किसी उपजाऊ मिट्टी , जैसा ये हो जाता है ।
कभी रेत के ढेर के जैसा , बंजर ये हो जाता है ।
अगर मिल गया इसे चतुर , सुघढ़ कुम्हार का हाथ  ।
रूप बदल कर वो इसको , सिखलाता जीवन की आश  ।
वर्ना किसी धूल के कण सा , मारा मारा फिरता है ।
इधर उधर सब के द्वारे , बस दुत्कारा फिरता है ।

जितना ज्यादा इसे तपाते , उतना ही यह चलता है  ।
वर्ना भीगी मिटटी सा , हर ठोकर में यह गिरता है ।
माटी जैसा जीवन इसका , फिर माटी में मिलता है ।
माटी से पैदा होकर ये , माटी का लोंदा रहता है ।

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सोमवार, 29 जुलाई 2013

मेरा पता..?

क्यों पूँछते हो तुम हवाओ से मेरे आशियाने को ,
गर पूंछना ही है तो पूँछो आंधियो से मेरा पता ।
ये हवाए जो तुम्हे मिलती हैं अक्सर राहों में ,
वो गुजराती है मेरे घर के कई कोसो से दूर ।
तो जाकर पूँछो तुम किसी आँधी से मेरा पता ,
वो आंधिया ही है जो गुजराती है मेरे दरवाजे से ।

हाँ अगर तुम्हे चाहिए मेरे घर के अन्दर का निशा ,
तो बता पाएंगे तुमको केवल बवंडर ही सही पता ।
क्योंकि अक्सर राहों पर,
 जब थक जाते है कई बवंडर ,
तब आकर सुस्ताते है वो,
 अक्सर मेरे घर के अन्दर ।
और जानना चाहो जो तुम मेरे स्वाभाव के बारे में ,
उसको जाकर पूँछो तुम कुछ गिने चुने तूफानों से ।

वो तूफां ही है जिनको आगे बढ़कर गले लगाता हूँ ,
पास बिठाकर उनको अपने दिल का हाल सुनाता हूँ ।
बाकी तो बस यूँ ही मेरे घर तक आते जाते है ,
कुछ दरवाजे के अन्दर कुछ बाहर ही रह जाते हैं ।
अन्दर जो भी आता है वो मेरा होकर जाता है ,
बाकी तो बस बेगानों सा बाहर ही रह जाता है । 

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शनिवार, 27 जुलाई 2013

समय...

समय बड़े बड़े घावो  को  भरने की सामर्थ रखता है ।
आज  जिन बातो से हम द्रवित एवं विचलित होते है कल वही बाते हमारे लिए सामान्य से भी कम महत्त्व की हो जाती है ।
यही मानव स्वभाव और संसार का नियम है ।

फिर चाहे वह सांसारिक रिश्ते हो या प्राणों से प्रिय प्रेम सम्बन्ध ,चाहे भौतिक सुख की चाह हो या मानसिक असंतुष्टिया ।
समय हर किसी के प्रति हमारी सोंच एवं एहसास को बदलता रहता है ।
और अंत में हमें उसके बिना या उसके साथ जीना सिखा ही देता है…!

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मंगलवार, 16 जुलाई 2013

सच ही कहा किसी ने...

सच ही कहा किसी ने , मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ।
रहती अधूरी हसरते , कुछ भी बेइंतिहा नहीं मिलता ।
ऐसा नही है इस जहाँ में , कभी कुछ भी नहीं मिलता ।
लेकिन तड़फते जिसके लिए , वो अक्सर नहीं मिलता ।
यहाँ अनगिनत हैं चाहते , और अनगिनत है ख्वाहिशे ।
इल्तिजा सबकी करें , इतना भी समय नहीं मिलता ।

जी रहे मन मार कर , जीना कहें कैसे इसे ।
जाना था जिस राह पर , इत्तदा नहीं मिलता ।
ऐसा  नहीं संग साथ में , कोई नहीं चलता ।
साथ जिसका चाहिए , वो हमराह नहीं मिलता ।
जब तक जहाँ में हम हैं , हमें खुदा नहीं मिलता ।
सच ही कहा किसी ने , संग जमी आसमां नहीं मिलता ।

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रविवार, 14 जुलाई 2013

जो होना था वो हो ना सका..

जो होना था वो हो  ना सका , जो चाहा था वो मिला कहाँ ?
हम नियति नियंता बन बैठे , नियति को ना स्वीकार हुआ ?
छोटी सी नौका के बल पर , मझधार का वेग नापने को ।
हम प्रचण्ड नदी में थे उतरे , नाविक का भरोसा बस कर के ।
पर नियति को था स्वीकार नहीं , हम उसे चुनौती दे बैठें ।
धारा की दिशा पलट गयी , और नदी उलट कर बहने लगी ।

उस पार पहुँचना था हमको , इस पार ही नौका लौट पड़ी ।
मेरे मन की मन में रही , बस नियति की सब बात चली ।
इस बार चुनौती खाली गयी , अब मेरी चुनौती नियति ही है ।
जो मै भी नियति का हिस्सा हूँ , तो नियति ही मेरी धार बने ।
फिर से वो मुझे अवसर दे , फिर धारा नदी की बदले वो ।
इस बार बिना पतवार के मै , चाह रहा मझधार को मै ।

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मंगलवार, 2 जुलाई 2013

उड़ जहाज का पंछी..

आप यूँ दिल के करीब , जब नजर आने लगे ।
बात चुभी उनको ही पहले , जो दूर थे जाने लगे ।
शायद उन्हें था ये गुमान , हम बिखर जायेंगे यूँ ही ।
छोड़ कर दिल तोड़ कर , वो दूर जब जायेंगे यूँ ही ।
माना गलत थी सोंच पर , बात काफी हद तक सही थी ।
हमने ही उनसे कभी ये , कमजोरियाँ अपनी कही थी ।

पर गलत वो आँक बैठे , गलत चाल पर शह दे बैठे ।
बिखरा किला हमारा मगर , हम मात उन्हें ही दे बैठे ।
माना रिश्ते शतरंज नहीं , पर बाजी यहाँ भी लगती  है ।
शह और मात से भी आगे , कुछ बाते सदा ही चलती हैं ।
हाँ यहाँ सुधारा जा सकता , चाले गलत जो चल बैठे ।
ज्यों उड़ जहाज का पंछी , फिर जहाज पर जा बैठे ।

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शुक्रवार, 28 जून 2013

अलविदा वर्ष २०१२-२०१३....

समय कितनी तेज गति से गुजरता जा रहा है ,
बंद मुठ्ठी से रेत ज्यों फिसलता जा रहा है..!
बस अभी कुछ साल पहले तक तो मै बच्चा ही था ,
फिर ना जाने दबे पाँव कब जवानी छा गयी..!
डूब और उतरा रहा था मै अभी आगोश में ,
कि ये देखो पौढ़ता द्वार पर मेरे आ रही..!
सोंचता हूँ अब तो समझ लूँ बीतते हर वक्त को ,
हो रहा तैयार होगा कही अंत भी "अनंत" का...!

अलविदा वर्ष ...२०१२-२०१३
स्वागत है नव वर्ष २०१३-२०१४....

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गुरुवार, 27 जून 2013

पल दो पल का ये जीवन ...

पल दो पल का साथ हमारा , पल में बिछुड़ ही जाना होगा ।
पता नहीं कब फिर इस जग में , लौट कर हमको आना होगा ।
लौट कर फिर जब आयेंगे , ये साथ कहाँ फिर पाएंगे ?
बदल चुकी होगी दुनिया , बिसर चुकी होंगी सब यादे ।
दूर देश से आते आते , फिर तेरे घर तक जाते जाते ।
रंग रूप बदल ही जायेगा , कोई कैसे पहचान में आएगा ?

कोस कोस पर बदले पानी , चार कोस पर बदले बानी ।
जाने क्या तब भाषा होगी , जाने क्या परिभाषा होगी ?
हो सकता है शब्द नए हो , या प्रचलन में अर्थ नए हो ।
बिसर चुकी होंगी जब यादे , बिखर चुकी होंगी बुनियादे ।
विलुप्त हो चुके होंगे रिश्ते , बस अभिलेखों में होंगे किस्से ।
जीवन होगा कोई नया सा , नहीं मिलेगा पिछला हिस्सा 

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बुधवार, 19 जून 2013

सबकी वही कहानी...

चाहतो, ख्वाहिसों, हसरतो के महल में ,
लोभ, लिप्सा,वासना ही सदा पलती रही ।
काम, क्रोध, मद, लोभ ही ,
इस महल के शहंशाह ।
चौपड़ की बिसात बिछाकर ,
वो बुलाते सबको यहाँ ।

चाहतो, ख्वाहिसों, हसरतो के भँवर  में ,
डूब ही जाते सभी , बच कर निकालता कौन यहाँ ?
स्वार्थ और अज्ञानता का ,
हर तरफ दलदल यहाँ ।
पाँव टिकाओ तो कहाँ पर ,
अंधी अन्तर्वासना यहाँ ।

चाहतो, ख्वाहिसों, हसरतो के भ्रमजाल में,
है भटकना सभी को , माया ठगनी है यहाँ ।
सिर पुरातन काल से ही ,
कौन बच पाया कहो ?
माया मोह के जाल से ,
कौन निकल पाया कहो ?  

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सोमवार, 17 जून 2013

क्या लिखूँ ...

क्या लिखू क्या ना लिखूँ  , कुछ समझ पाता नहीं । 
भाव हैं मन में बहुत , पर  उन्हें समेट पाता नहीं ।
कुछ भाव हैं बस प्यार के , कुछ है तेरे अहंकार के ।
कुछ भाव तुझसे लगाव के, कुछ रिश्तो के बिखराव के ।
कुछ भाव हैं निर्द्वन्द से , कुछ उलझे है अंतर्द्वंद से  ।
कुछ मुस्कुराहट ला रहे , कुछ फिर दुखी कर जा रहे ।

क्या लिखूँ  क्या ना लिखूँ , चलो तुम ही बताओ मै क्या लिखूँ ।
वो बसंत ऋतु की बात लिखूँ, या ये पतझड़ का बिखराव लिखूँ ।
गैरों का बनना अपना लिखूँ  , या अपनो का बनना गैर लिखूँ  ।
है भूल-भुलैया भावों  की , कोई राह मिले तब तो मै लिखूँ ।
यहाँ अपना पराया कोई नहीं , फिर बात कहो मै किसकी लिखूँ ।
मकड़जाल  में उलझा  मन , चलो उलझन को सुलझाना लिखूँ ।

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शुक्रवार, 14 जून 2013

बीता हुवा कल...

सिलसिले जो आपने , शुरू बेबफाई के किये ।
बनकर वो काँटे नुकीले , राहों में मुझको मिले ।
आपने सोंचा भी है , हम क्यों वफ़ा करते रहे ?
यार भले नाखुश रहे , याराना तो चलता रहे ।
आप भले नाराज रहे , दूर भले ही आज रहे ।
हमको वचन निभाना है , संग चलते जाना है।

यदि समझ सको बात मेरी , फिर शुरु करो आज अभी ।
दिल में चुभोये तीरों पर , तुम वापस ले लो आज अभी ।
वो बदकिस्मत होते है , जो अपनो की वफ़ा ना पाते है ।
लेकिन उनसे ज्यादा वो , जो साथ निभा नहीं पाते है ।
मत बाँधो दिल के भावो को , अविरल इनको बहने दो ।
भले काँटो  से नाराज रहो , पर फूलो को तो मिलने दो ।


तुम आज भले ना साथ चलो , रूठे ही मुझसे आज रहो ।
मत छोड़ो कुछ मुलाकातों को , रिस्तो को तो चलने दो ।

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मंगलवार, 11 जून 2013

मानव जीवन नदी का पानी...

मानव जीवन नदी का पानी , गुजरे घाट ना ठहरे पानी ।
घाट घाट का रूप निहारे , न बँधे किसी बंधन में पानी ।
माँ की कोख है इसका उदगम , किलकारे बचपन का पानी ।
मदमाती लहरे यौवन की , ना सहे किसी का जोर जवानी ।
एक बार जिस घाट से गुजरे , लौट ना देखे फिर से जवानी।
छाए बुढ़ापा जब तन पर , सिमटे धारा सूखे तब पानी ।

बहे मंद गति से जब पानी , आये याद बीती जिंदगानी ।
यौवन बचपन की बाते सारी , करे याद स्थिर सा पानी ।
चलते चलते आये सागर , हो जाये समाहित सारा पानी ।
जिसके अंश से उदगम होए , मिले अंत में उसी में पानी ।
ना नदी बचे ना धारा बचे , ना उसका कोई किनारा बचे ।
जीव मिले जा ब्रह्म में फिर से , सागर में हो ख़तम कहानी ।

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आचरण की सभ्यता..

आचरण का अर्थ तो ,
आ-चरण में ही छिपा ।

आ-चरण सीखे बिना ,
आचरण किससे सधा । 

आचार्य है वो लोग जो ,
आ-चरण को जानते ।

आ-चरण को साध कर ,
आचरण को बाँटते ।

आचरण को जानना , 
है नहीं मुश्किल कोई ।

पर साध पाए जो उसे ,
सिद्ध कहलाता वही ।

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गुरुवार, 6 जून 2013

तुम अभी कमल के आदी हो..

क्यों जिद करते मुझसे आप, असली चेहरा दिखलाने को ।
है नहीं सामर्थ अभी तुममे , मेरा असली रूप पचाने को ।
तुम अभी कमल के आदी हो , कीचड़ में करते वास अभी ।
तुम क्या जानो क्या होता है , काँटो के मध्य गुलाब कभी ।
वो तो कमल है जो सहता है , कीचड में भी खुश रहता है ।
मत रोपो यहाँ गुलाब अभी , वो उर्वर भूमि में ही उगता है ।

तुम कहते हो कि रूप बदल लूँ , तुमसे मिलते वस्त्र पहन लूँ ।
क्या होगा इस आडम्बर से , जब तक अंतर्मन ना बदल लूँ ।
अंतर्मन भी अगर बदल लूँ , कहाँ से लाऊँगा बेशर्मी ।
बिन पेंदी के लोटे सा मै , कहो कहाँ से पाऊँगा बेधर्मी ।
तो फिर जो कुछ जैसा है , उसे वैसा ही अभी चलने दो ।
तुम अपनी राह चलो यारो, मुझे अपनी राह ही चलने दो ।

मत करो अभी तुम जिद मुझसे , मेरा असली रूप दिखाने को ।
जब भेद सभी का खुल जायेगा, मेरा असली चेहरा मिल जायेगा ।

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शनिवार, 1 जून 2013

प्राण प्रतिष्ठा...

सदियों पहले आदिवासी इलाको में ,
चलन था कुछ कुरूप से मुखौटो का।
ज्यादातर ख़ुशी में और कुछ दुखो में ,
पहनते थे लोग मुखौटो को चहरे पर।
पहनकर उसे ख़ुशी से नाचते थे अक्सर ,
या फिर दुखो में प्रकृति से माँगते कृपा थे ।

फिर न जाने क्यों प्रगति की राह पर ,
रूठ कर टूट सी गयी नैसर्गिक परम्परायें ।
याद रह गए चहरे और खो गए मुखौटे सब ,
भूल ही गए हम अपने निर्जीव आवरण को।
पर मानव तो मानव है उसने जल्द ही ,
विकसित कर ली फिर से नयी विधाए ।

इस बार मुखौटे चुना जो उसने वो दिखते सुन्दर है ,
और झलकती है अब उसमे झूँठी मानवतायें ।
पहले तो सांकेतिक थे ये मुखौटे ,
जब कुछ अवसर पर ही चेहरो पर होते थे ।
अब तो उनमे भी सचमुच जीवन है ,
और हम मुखौटे बन कर ही जीते है ।

सदियों पहले जो हो ना सका वो ,
आज है हमने कर दिखलाया ।
एक निर्जीव मुखौटे को मानव सा ,
हमने जीवन जीना है सिखलाया ।
यह कला भी अदभुद न्यारी है ,
अब सब लोको में यह प्यारी है ।

मानव ने प्राण प्रतिष्ठा कर ही दिया ,
अब पालन करने को ईश्वर की बारी है ।

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मंगलवार, 28 मई 2013

निर्देशन..

यूँ तो जिंदगी में ऐसे  बहुत से अवसर होते है , 
जब हम किसी कथाकार की तरह जीने का अवसर पाते है।
और जब जब ऐसा  होता है ,
हम अपनी कल्पनाओ को मूर्त रूप देते है।
और हम खींचने लगते है खाका किसी कहानी का ,
और अपने पसंद के पात्रो का उसमे चयन करने लगते है। 

हर एक पात्र को एक योजनाबद्ध तरीके से ,
अपनी कहानी के अनुरूप हम ढालते है।
उनकी वाणी में हम अपने शब्द डालते है ,
और उनके आचरण को अपने विचारो सा बनाते है।
और फिर किसी मँझे  हुए नाटककार की तरह,
हम उन घटनाओ को नाटक में लाते है जिन्हें हम चाहते है।

पर कभी कभी ऐसा भी होता है यारो ,
कहानी का कोई पात्र ज्यादा सशक्त हो जाता है।
और फिर वो कहानी को नया मोड़ देने लगता है ,
औरो से अपने चरित्र को ज्यादा प्रभावी बनाने लगता है।
पहले से तय कथाकार के कथानक को भूल कर ,
वह स्वयं ही एक नयी कथा बाँचने  लगता है।

तब यदि कथाकार में थोड़ी भी समझदारी होती है,
तो वह भावी स्थित का आँकलन  कर लेता है।
और फिर किसी आकस्मिक घटना के साथ ,
वह तत्काल ही स्वछंद हो गए पात्र को बदल देता है।
और इस तरह एक नाटकीय तरीके से पुन: ,
वह अपनी कहानी को वापस पटरी पर ला देता है।

पर मानव जीवन खुद अपने में ही एक कहानी है ,
और वह स्वयं ईश्वर निर्देशित नाटक का ही पात्र है।
विधाता कभी भी हमें जीवन का कथाकार नहीं बनने देता है ,
इससे उलट हमें ही किसी न किसी कहानी का पात्र बना देता है।
फिर घटनाये विधाता के अनुसार घटित होती है ,
जहाँ हमारी मर्जी पर कुछ निर्भर नहीं होता है।

और तभी तो हम कहते है , 
हम तो बस कठपुतलिया है विधाता की और वही असली कथाकार है।

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सोमवार, 20 मई 2013

सपने और अपने..

"औरंगजेब"  कल झेल़ा इसे, एकदम थर्ड क्लास बकवास मूवी , सिवाय सिर्फ एक बेहतरीन डायलाग के -
"सपनों से ज्यादा अपनो की कीमत होती है" , बात तो सच है पर क्या ये बात नहीं अधूरी ?

कहते तो सच हो सारा , पर कही बात अधूरी है यारा ।
सपनों से ज्यादा अपनो की , जीवन में कीमत होती है ।
पर अपने ही अपने ना हो तो, सपनों की बात करे हम क्या ?
सपने और अपने दोनों ही , कुछ सच कुछ आभासी होते है ।
कुछ दिखते अपनो के जैसे , पर सपनों के जैसे होते है ।
कुछ सपने सपने होते है , पर अपनो के जैसे होते है ।

मत हँसो मेरी इस बात पर तुम , मै बात घुमाता नहीं यारा ।
दिल की बात जो दिल से निकले , वही बात मै कहता हूँ यारा ।
सपने और अपने दोनों ही , अपने और पराये होते है ।
जो निभा सके संग तेरे अपना , बाकी सब पराये होते है ।
सपने बस सपने होते है , अपने बस अपने होते है ।
कुछ अपने सपने होते है , कुछ सपने अपने होते है ।

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रविवार, 19 मई 2013

उलटबाँसिया...

कहे कबीर बुलाकर मुझको , एक अजूबा होए ।
धरती बरसे अम्बर भींजे , बूझे बिरला कोय ।
मैंने कहा सुना है गुरूजी , ये गजब अजूबा होय ।
एक अजूबा मैं भी देखा , अब बूझे उसको कोय ।
प्यासा बैठे घर पर अपने , नदिया चलकर जाय ।
बूझे जो कोई विरला इसको , वो मेरा गुरु कहाये ।

हम दोनों ने एक दूजे पर , अपने अपने दाँव लगाये ।
मैंने अपनी खातिर फिर , अपने सारे जतन लगाये ।
मैंने कहा सुनो भाई साधो , ये  बात तुम्हारी ठीक है ।
प्रथम हो गया अंतिम और , साधन हो गया साध्य है ।
जब भी किसी कार्य में हम , होते है तल्लीन बहुत ।
कार्य बदल जाता कारण में , कारण बनता कर्म तब ।

सुनकर कहा कबीर ने मुझसे , एक सी है ये दोनों पहेली ।
हम तो प्रेम पुजारी थे ही , तुम भी बन गए नए पुजारी ।
जब जब बहती प्रेम की नदिया , यू  ही होती उलटबाँसिया ।
कभी बरसती धरती है तो , कभी है चलकर जाती नदिया ।
जब जब लगन लगेगी मन से , साधन होगा साध्य तब ।
समझ न पाए जो कोई  इसको , उसको क्या  समझाये अब 

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नशा..

( एक दशक पुरानी रचना है ये...पर शायद नही है बदले हालत अभी..)

नशा शराब का होता उतर जाता कब का । 
नशा चढ़ा है मुझ पर मेरी रवानी का । 
                  ये रवानी भी क्या गजब चीज है यारो ?
                  असर शराब का और महक पानी का ।
दूर से लोग कहते है किया है नशा ।
पास आकर कहते है जिया है नशा । 
   तो 
बिना पिये ही चढ़ी हो अगर बोतले ।
पीकर खाली करू मै  क्यों बोतले । 
                  जिनको चढ़ता नहीं है रवानी का नशा ।
                  उनको ही चाहिए अंगूरी महुवे का नशा 
हाँ कदम यदि बहकते दिखे हो तुम्हे ।
इसको कहना मेरी जवानी का नशा ।
                  अब इसके बारे में अधिक क्या कहूँ ।
                  शायद तुमने भी पाया हो इसका मजा ।
    पर 
जिसे चढ़ा हो एक से ज्यादा नशा ।
समझो हो गया वो काकटेल का नशा ।
                  अब छोड़ो ये बाते कहूँगा फिर कभी ।
                  देखो चढ़ने लगा है मुझे नींद का नशा । 
क्या कहा तुम मिलोगे उतरने के बाद ।
तो शायद तुम मिलना दशको के बाद ।

                  तब तक शायद उतर जाये वो नशा ।
                  जिसको कहा था मैंने जवानी का नशा ।
और रहा शेष मेरी रवानी का नशा ।
वो तो उतरेगा केवल मेरे मरने के बाद ।
                  हाँ अगर तुम मिले मुझसे कल की शुबह ।
                  तब तक शायद उतर जाय नींद का नशा ।
और जो बोतल खोली थी तुमने अभी ।
उसका मुझ पर चढ़ा ही कब है नशा ?

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रविवार, 12 मई 2013

सफल बे-ईमान...

जब बेईमान व्यक्ति सफल होता है तो यह उसकी बेईमानी की सफलता नहीं वरन यह उसमे पाए जाने वाले अच्छे  गुणों की सफलता होती है ।

यह जरूरी नहीं है की एक ईमानदार आदमी सभी योग्यताओं से युक्त हो । हो सकता है की कोई व्यक्ति सिर्फ ईमानदार हो पर साथ में कमजोर,हिम्मत हीन , अव्यवहार कुशल या कायर हो । तो अगर एक ईमानदार व्यक्ति असफल होता है तो ज्यादा संभावना होती है कि वह अपनी ईमानदारी के वजह से नही वरन अपनी अन्य कमजोरियों के वजह से असफल है 

वही एक बेइमान व्यक्ति साहसी,बुद्धिमान,संगठन क्षमता युक्त,भविष्य का अनुमान करने वाला,पहल करने वाला आधि उच्च गुणों से युक्त हो सकता है और इन सारे गुणों की वजह से वो आसानी से सफलता प्राप्त कर लेता है । जैसे चोरी भी एक जटिल विग्ज्ञान है , इसमे बडे गुण चाहिए । एक सफल चोर में एक सैनिक के समान हिम्मत , एक संत के समान शांति और एक ज्ञानी के समान अन्तर्दृष्ट होनी चाहिए अन्यथा ना तो वो चोरी करने की हिम्मत जुटा पायेगा और अगर जाएगा भी तो पकड़ा  जायेगा ।

चोरी या बेइमानी सफलता नही लाती है क्योंकि वो तो अपने आप में असफल होने को आबद्घ है । हाँ अगर उसमे अन्य योग्यताये जुड जाए तो वह सफल हो सकती है । वही अगर ये सारे गुण किसी अ-चोर में हो तो उसकी सफलता के क्या कहने ।

वास्तव में दुनिया के बुरे से बुरे व्यक्ति की सफलता के पीछे वही गुण होते है जो दुनिया के अच्छे से अच्छे व्यक्ति की सफलता के पीछे होते है और इसका उल्टा  असफलता के लिए लागू होता है ।

तो व्यर्थ में किसी बे-ईमान सफल व्यक्ति से सिर्फ इस लिए इर्ष्या ना करे की वो बे-ईमान है , पहले उसकी सफलता के अन्य कारणो को भी समझे

शुक्रवार, 10 मई 2013

नयी अभिलाषा...

तन प्यासा है मन प्यासा है , 
                     जीवन को पाने की आशा है ।
अब तक जो कुछ पाया है , 
                     वो प्यास ना मेरी मिटा सका है ।
केवल अधरों को गीला कर , 
                     मेरी आस को ही बस जगा सका ।

अब चाह रहा मै वो अमृत , 
                     जो जीवन को मेरे तृप्त करा दे ।
मुझको मेरी अभिलाषा से , 
                     जीवन भर को मुक्त करा दे ।
प्यास बुझा कर तन मन की , 
                     मुझको मेरी दिशा दिखा दे ।

वर्ना जब तक मन प्यासा है , 
                     तन को प्यासा रहना ही है ।
या जब तक तन प्यासा है , 
                     मन में आनी नयी अभिलाषा है ।
यूँ जब तक तन मन प्यासा है , 
                     फिर जीवन पाने की आशा है ।

अब चाह रहा मै वो अमृत , 
                     जो कण्ठ को मेरे तृप्त करा दे ।
तन मन की मेरी प्यास बुझाकर , 
                     जीवन भर को मुक्त करा दे ।
श्याम रंग में मुझे डुबोकर , 
                     अब तो मेरे ईश्वर से मुझे  मिला दे ।

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मंगलवार, 7 मई 2013

रिश्तो की डोर...

रिश्तो की डोर कोई , उलझ गयी ऐसी ,
ना तोडे से टूटे , ना सुलझाई जाए ही..

रिश्ता भी ऐसा , जिसे दिल ही निभाए ,
ना छोड़े से छूटे , ना अपनाया जाए ही.. 

सांप और छछुंदर सी , हो गयी स्थिति ,
ना निगल ही सके , ना उगला जाए ही..  

रिश्तो की डोर जब , उलझ जाए ऐसी ,
कितना ही बचाओ , गाँठ लग जाए ही..

जितना ही समझो , ना बात समझ आये ,
सुलझाते सुलझाते , बात उलझ जाए ही..

अटक गयी बात जो , वो दिल से ना जाय ,
कितना ही भुलाओ , फिर से याद आये ही..

गैर कोई हो तो , कुछ बतलाया जाए भी ,
अपनो को यारो , ना कुछ कहा जाए ही..

रिश्तो की डोर एक , उलझ गयी ऐसी ,
ना तोडे से टूटे , ना सुलझाई जाए ही..

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ये नहीं है जगत वो...

ये नहीं है जगत वो , जिसको चाहा था मैंने ।
वो सपनों का महल था , ये है खण्डहर विराना ।
सोंचा था मैंने कुछ , हरे भरे बाग़ होंगे ।
फूलो की खुशबू और , फलो की मिठास होगी ।
सुबह शाम ठंडी-ठंडी , चलती बयार होगी ।
कभी कभी रिमझिम सी , आती बरसात होगी ।
बागो से कोयल की , आती पुकार होगी ।
मंदिर में बजते , घंटो की टंकार होगी ।
न्यायप्रिय राजा , और जनता खुशहाल होगी ।
धरती पर स्वर्ग की , वो एक मिसाल होगी ।

लेकिन ये स्वप्न था , और स्वप्न ही रह गया ।
महल सारे गिर गए , और खण्डहर ही रह गया ।
बाग़ सब उजड़ गए , कंटीले झाड़ो से भर गए ।
फूल तो खिले नहीं , फलो की क्या बात करे ।
चहुओर कौए है और , गिद्धराज राज करे ।
कर्कश सी तान पर , वो अपना बखान करे ।
चाहता है मन मेरा , लौट चलू घर की और ।
फिर ना कभी आऊ , भूले से इस बनवास में ।

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आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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