सदियों पहले आदिवासी इलाको में ,
चलन था कुछ कुरूप से मुखौटो का।
ज्यादातर ख़ुशी में और कुछ दुखो में ,
पहनते थे लोग मुखौटो को चहरे पर।
पहनकर उसे ख़ुशी से नाचते थे अक्सर ,
या फिर दुखो में प्रकृति से माँगते कृपा थे ।
फिर न जाने क्यों प्रगति की राह पर ,
रूठ कर टूट सी गयी नैसर्गिक परम्परायें ।
याद रह गए चहरे और खो गए मुखौटे सब ,
भूल ही गए हम अपने निर्जीव आवरण को।
पर मानव तो मानव है उसने जल्द ही ,
विकसित कर ली फिर से नयी विधाए ।
इस बार मुखौटे चुना जो उसने वो दिखते सुन्दर है ,
और झलकती है अब उसमे झूँठी मानवतायें ।
पहले तो सांकेतिक थे ये मुखौटे ,
जब कुछ अवसर पर ही चेहरो पर होते थे ।
अब तो उनमे भी सचमुच जीवन है ,
और हम मुखौटे बन कर ही जीते है ।
सदियों पहले जो हो ना सका वो ,
आज है हमने कर दिखलाया ।
एक निर्जीव मुखौटे को मानव सा ,
हमने जीवन जीना है सिखलाया ।
यह कला भी अदभुद न्यारी है ,
अब सब लोको में यह प्यारी है ।
मानव ने प्राण प्रतिष्ठा कर ही दिया ,
अब पालन करने को ईश्वर की बारी है ।
चलन था कुछ कुरूप से मुखौटो का।
ज्यादातर ख़ुशी में और कुछ दुखो में ,
पहनते थे लोग मुखौटो को चहरे पर।
पहनकर उसे ख़ुशी से नाचते थे अक्सर ,
या फिर दुखो में प्रकृति से माँगते कृपा थे ।
फिर न जाने क्यों प्रगति की राह पर ,
रूठ कर टूट सी गयी नैसर्गिक परम्परायें ।
याद रह गए चहरे और खो गए मुखौटे सब ,
भूल ही गए हम अपने निर्जीव आवरण को।
पर मानव तो मानव है उसने जल्द ही ,
विकसित कर ली फिर से नयी विधाए ।
इस बार मुखौटे चुना जो उसने वो दिखते सुन्दर है ,
और झलकती है अब उसमे झूँठी मानवतायें ।
पहले तो सांकेतिक थे ये मुखौटे ,
जब कुछ अवसर पर ही चेहरो पर होते थे ।
अब तो उनमे भी सचमुच जीवन है ,
और हम मुखौटे बन कर ही जीते है ।
सदियों पहले जो हो ना सका वो ,
आज है हमने कर दिखलाया ।
एक निर्जीव मुखौटे को मानव सा ,
हमने जीवन जीना है सिखलाया ।
यह कला भी अदभुद न्यारी है ,
अब सब लोको में यह प्यारी है ।
मानव ने प्राण प्रतिष्ठा कर ही दिया ,
अब पालन करने को ईश्वर की बारी है ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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