हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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गुरुवार, 30 जून 2011

सभ्यता के दौर में...

सभ्यता के दौर में भी , क्यों है भूँखा आदमी ?
गिद्ध सी दृष्टि से , क्यों  देखता है आदमी ?
चील सा सब पर झपटता , आज क्यों है आदमी ?
आदमी के मांस को , क्यों नोचता है आदमी ?

घर में वो संतान है , माता पिता की शान है ।
भाई बहन के पर्व का , वो आज भी निशान है ।
अपने जीवन साथी के , आन का वो मान है ।
संतानों के अपने सभी , वो सदा अभिमान है ।

सभ्यता के दौर का जो , आज ये इन्सान है ।
देखने में जो भी लगे , अन्दर से हैवान है ।
छू रहा होता है जब , किसी दूसरे इन्सान को ।
उँगलियों के पोर से , चखता है वो मांस को ।

आँख चाहे जो कहे , वो तौलती है मांस को ।
शब्द प्रगट हो न हो , मन सोंचता है भाव को ।
हो नजर कितनी भी नीची , देखती टेढ़ी ही है ।
साधुता के लबादे में , लालच भी पलती ही है ।

कुछ लोगो में अवशेष है , ईमानदारी आज भी ।
पूरी कीमत वो चुकाकर , साख रखते मांस की ।
इस तरह वो भूंख का , आदर्श बनाया करते है ।
सभ्यता के दौर में भी , भूँख मिटाया करते है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

हँस के हम सारे गम अब छुपाने लगे...

प्रिय गोविन्द जी के सौजन्य एवं उनसे जबरन प्राप्त अनुमति से आपके समक्ष प्रस्तुत है उनकी दूसरी रचना ...


हँस के हम सारे गम 
अब छुपाने लगे , 
हमसे वो अब 
बहुत दूर जाने लगे। 

भूल हमको
किसी से दिल वो लगाने लगे , 
हमी से मोहब्बत के 
किस्से सुनाने लगे। 

उनको हम अब तो
लगने बेगाने लगे ,
हमसे नज़ारे भी वो अब
चुराने लगे।

यादों में उनकी 
हम डूब जाने लगे , 
याद में उनकी 
आंसू बहाने लगे।

प्यार पाने की 
खुशियाँ वो मनाने लगे , 
प्यार खो के 
गम गले हम लगाने लगे।

सपने सारे हमारे 
टूट जाने लगे , 
वो तो औरो के 
सपने सजाने लगे।

वफ़ा कर के भी हम 
हार जाने लगे , 
हँस के आँसू भी हम 
पीते जाने लगे।

जिंदगी गम के साये में 
फिर बिताने लगे , 
हँस के हम 
सारे गम अब छुपाने लगे। 

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★गोविन्द पांडे ★彡

बुधवार, 29 जून 2011

हाथ की लकीरों में क्या लिखा है कौन जानता है?

प्रिये मित्रो एवं वरिष्ठ आदरणीय जन

आज मेरे एक बहुत ही अजीज मित्र और भाई गोविन्द ने मुझे अपनी लिखी एक रचना पढने के लिए भेजी जिसे कई बार पढने के बाद उनकी जबरदस्ती अनुमति प्राप्त करके अपने ब्लाग पर लगा रहा हूँ ताकि आप लोगो को भी उनने हुनर से वाकिफ कराया जाय...

तो आपके समक्ष प्रस्तुत है ....


हाथ की लकीरों में क्या लिखा है कौन जानता है?

तुम हमें मिलोगे,
अपना बनाओगे , हर पल
मेरा साथ निभाओगे, या
यादों के सहारे जिंदगी गुजर जाएगी,
कौन जानता है?

पेड़ से पत्तों की तरह,
बिखर जाती हैं खुशियाँ,
बस साख लिए खड़े हैं तपती धूप में,
इस पतझड़ के बाद बसंत आएगा
या नहीं, कौन जानता है?

उगा था एक पौधा,
कुछ हसरत लिए,
जुल्म सहता हुआ
खड़ा है वो, वो पेड़ बन पायेगा
या टूट जायेगा,
कौन जानता है?

जो सपने सजाये थे हमने,
तुम्हारे साथ दुनिया बसायेगे ,
सपने सच होंगे, या
एक अधुरा ख्वाब बन के रह जायेगे,
कौन जानता है?

संवर जाती जिंदगी हमारी,
तुम्हे भी दे सकूँ खुशियाँ सारी,
हासिल होगी कामयाबी,
या खुद लिखनी पड़ेगी
अपनी बरबादियों की कहानी,
कौन जानता है?\

जिंदगी में लोग आये,
सबसे हमने दिल लगाये,
उनकी तरह तुम भी छोड़ जाओगे,
या हमारी हाल पे मुस्कुराओगे,
कौन जानता है?

जीवन पे काली घटा छाई है,
सारी फिजा अँधेरे के
आगोश में समाई है,
इन अंधेरों में खो जायेगे हम,
या सुनहरा सवेरा होगा,
कौन जानता है?

जीवन के साथ खेल खेलती हैं ये लकीरें,
कभी सुख कभी दुःख देती हैं,
हर पल रंग बदलती हैं ये लकीरें,
क्या होगा अगले पल में,
कौन जानता है?

हाथ की लकीरों में क्या लिखा है कौन जानता है?

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★ गोविन्द पाण्डे ★彡

भँवर..

मन के अथाह सागर में ,
प्रतिपल हलचल रहती है ।

भावनाओ की अनगिनत , 
लहरे रोज मचलती हैं ।

चाहतो की नित जटिल ,
भँवरे  यहाँ बनती हैं ।

आगोश में अपने समाये ,
भावनाओ को रखती हैं ।

जो भी चाहो वो दिखेगा ,
चाहतो की इन भँवर में ।


कर के देखो तुम जरा ,
मन के सागर का मंथन ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 28 जून 2011

तेरी रजा....

वाह कितने प्यारे शब्द कहे गए है ...
"मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे ,
बाकी न मै रहूँ न मेरी आरजू रहे ।"
और आज इन्ही शब्दों और भावो से मै ईश्वर को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उसने मुझे मेरे जीवन के एक और वर्ष की शुरुवात करने का अवसर दिया और जीवन में वह सब दिया जिसे जब जब मैंने बेक़रार होकर पाना चाहा ...


तूने मुझे बनाया जग में , तू ही मुझे चलाता है ।
मै तो हूँ कठपुतली तेरी , तू ही मुझे नाचता है ।

क्या मै माँगू क्या चाहूँ , कुछ समझ नहीं आता है ।
मेरी तो हर साँस में ही , बस बसती तेरी माया है ।

अच्छे बुरे यहाँ है जो भी , सारे कर्म तुम्हारे है ।
तू ही सच्चा कर्ता है , और तू ही सबका भर्ता है ।
मेरी क्या समर्थ यहाँ जो , करूँ कार्य अपने बल पर ।
मै तो बस कठपुतली हूँ , जो नाच रहा तेरे बल पर ।


तेरे बनाये इस जग में , क्या मेरा कौन पराया है ।
चाह रहा हूँ जो भी दिल में , वो सब तेरी माया है ।
सुख दुःख जो जग में आता , वह कहाँ हकीकत होता है ।
जो समझ नहीं इसे पाता है , वो ही जग में रोता है ।

जब यही सत्य है जग का , फिर कहाँ सत्य मेरी काया है ।
दसो दिशा में जहाँ भी देखो , बस फैली तेरी माया है ।
इसी तरह से इस जग को , तुमने सदा चलाया है ।
तेरी रजा ही मेरी रजा है , और तू ही मेरी काया है ।
। © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 25 जून 2011

आधा.. या पूरा

आधे पर मन राजी है , 
तन भी राजी आधे पर ।
आधे को सिद्धांत मनाता , 
भौतिकी राजी आधे पर ।
आधा धर्म को प्यारा है ,
ईश्वर उससे न्यारा है ।
पर
नहीं चाहिए आधा रिश्ता ,
आधा दिल में सदा ही चुभता ।
आधे का है मोल वहा ,
जहाँ व्यापता धन और वैभव ।
आधे का क्या करेगा दिल  , 
हमें चाहिए पूरा ह्रदय ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 23 जून 2011

तख़्त बदल दो , ताज बदल दो ....

तख़्त बदल दो , ताज बदल दो , 
बेईमानो का राज बदल दो । 
देखो जनता आती है ,
परिवर्तन की आँधी लाती है । 
जन-जन अब हाल बदल दो , 
मिलकर सत्ता की चाल बदल दो । 


जाने कब ये बना था नारा , लेकिन अब भी लगता प्यारा । 
सत्ता पाकर भी जनता को , नहीं किसी ने कभी दुलारा । 
जाने कितने तख़्त बने , जाने कितने इतिहास बुने । 
जाने कितने नेताओं को , अदल बदल कर हमने चुने । 
मगर आज तक जनता का , नही कोई कल्याण हुआ । 
जो भी सत्ता में जाकर बैठा , वो अपने में ही भार हुआ । 
जाने कितने बदले ताज , जाने कितने बदले राज । 
निरीह असहाय जनता का, बनता नहीं है कोई काज । 
भूँखी-नंगी जनता का , उन्होंने भी नहीं हाल सुना ।
बड़े अरमानो से हमने , जिनको  अपना नेता चुना ।
बदल गयी सब मर्यादाएं , भूल गयी पिछली भाषाए ।
केवल सत्ता याद रही , और याद रही उसकी भाषाए ।

भूल सभी जन-संघर्षो को , नेताओं ने बस दुराचार किया । 
जनता की आकंक्षाओ से,खुल्लम-खुल्ला व्यभिचार किया ।
याद रहे नहीं वादे उनको , भूल गए सब नाते उनको ।
बीते थे कुछ एक माह ही , जब सत्ता में जाते उनको ।
सत्ता है कुछ ऐसी ठगनी , मति-भ्रम वो कर देती है ।
अच्छे अच्छो के मन में , लालच वो भर देती है 
फिर भी हमको लगता प्यारा , नारा ये कितना है न्यारा ।
खाकर लाठी-डंडो को भी , जनता ने इसे सदा दुलारा ।
मन में आश जगाता है , कभी मृग-तृष्णा सा बहलाता है ।
आज नहीं तो कल निश्चित ही , बदलेगा हाल बताता है ।
सत्ता सुख का बँटवारा , आखिर जन-जन तक पहुंचेगा ।
आएगा एक दिन वो भी , जब सबका चेहरा चहेंकेगा ।

मत आश करो नेता,बाबाओं का , ये सब चाटुकार हैं सत्ता के ।
तुम स्वयं ही अपने नेता हो , और योग्य भी हो तुम सत्ता के ।
मत देखो तमाशाई बन कर , कल घर तेरा भी जल सकता है ।
हम जैसी बेबस जनता से ही , कोई जन आँधी बन सकता है ।
तो आवो फिर से जोर लगाओ , क्यों बैठे हो तुम भी आ जाओ ।
आओ धरने पर तुम भी आओ , अपना भी दुःख-दर्द सुनाओ ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 20 जून 2011

आवरण..

आवरण के जाल में , है भटकता आदमी ।
कब कहाँ कैसे दिखे , बस सोचता है आदमी ।
क्या सोचते हैं दूसरे , होता विकल है आदमी ।
आवरण के जाल में , फँस गया है आदमी ।
कब कहाँ कहना है क्या , गांठ बाँधता आदमी ।
संवेदना को भी सजाकर , पेश करता आदमी ।

बाजार के हर मापदंड, अपना रहा है आदमी ।
नित बेचता इमान अपना, जा रहा है आदमी ।
रात का जो आवरण है, वह सुबह दिखता नहीं ।
भोर का जो आवरण है, रात वो चलता नहीं ।
आवरण जो है बचाता , धूल बारिस धूप से ।
एक क्षण भी बच न पता , आदमी की भूँख से ।

आज है बाजार में , हर तरह का आवरण ।
जैसा चाहो तुम चुनो, तैयार है सब आवरण ।
आत्मा का आवरण, तन को दिखाता आवरण ।
आचरण का आवरण, मन को छुपाता आवरण ।
आवरण के ढेर में , कहीं खो गया है आदमी ।
भूल कर इंसानियत , बस आवरण है आदमी ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 10 जून 2011

हे एकलव्य...

भूल कर तुम लक्ष्य को ,
पशु सा भटकते क्यों यहाँ ।
नित खोखले आदर्श का ,
क्यों स्वांग भरते तुम यहाँ ।
भूल कर रण-भूमि को ,
क्या कर रहे रंग-भूमि में ।
छोड़ कर शैया सुहानी ,
क्यों सो रहे हो भूमि में ।
कर्म को त्याग कर ,
कब चल सका सिद्धांत जग में ।
भाग्य तुम कहते जिसे ,
वो कर्म के होता है बस में ।
खोखले सिद्धांत से ,
मिलता नहीं कुछ भी यहाँ ।
भोजन बिना पेट की ,
है छुधा मिटती कहाँ ।
सीखना तुमको पड़ेगा ,
तोड़ चक्रव्यूह का ।
जानना तुमको पड़ेगा ,
भेद सारे व्यूह का ।
दूसरों के बाहु-बल का ,
तुम भरोसा क्यों करो ।
देख कर अवरोध को ,
तुम क्यों कदम पीछे करो ।
लक्ष्य को पहचान कर ,
दृष्टि अर्जुन सा करो ।
एकलव्य सा सीख कर ,
हर साध्य को अपना करो ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 1 जून 2011

आधी रात..

आधी रात बुलाया तुमने , 
नींद से मुझे जगाया तुमने ।
मुझको मेरे स्वप्नों से , 
जबरन अलग कराया तुमने ।
जाम बनाया तुमने और ,
फिर अपने पास बिठाया क्यों ।
चाँद छिपा है बादल में ,
मुझको ये दिखलाया क्यों ।

कुछ बातें थी जो अंजानी ,  
वो राज मुझे बताया क्यों ।
आधी रात मुझे सजाकर , 
दूल्हे सा बैठाया क्यों ।

अब तो असली वजह बता दो ,
अहसान करो मुझ पर थोड़ा ।
आज जिबह का दिन तो नहीं ,
मुझको लगता है डर थोड़ा ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

चीड़ के जंगल

चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से

मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से

अब शहीदों की चिताओं पर न मेले लगते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से

मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर चौराहे पर 
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से

बैठता हूँ जब भी "गौतम’ दुश्मनों की घात में 
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से

- "ले० कर्नल गौतम राजरिशी" की कलम से 

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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