आवरण के जाल में , है भटकता आदमी ।
कब कहाँ कैसे दिखे , बस सोचता है आदमी ।
क्या सोचते हैं दूसरे , होता विकल है आदमी ।
आवरण के जाल में , फँस गया है आदमी ।
कब कहाँ कहना है क्या , गांठ बाँधता आदमी ।
संवेदना को भी सजाकर , पेश करता आदमी ।
बाजार के हर मापदंड, अपना रहा है आदमी ।नित बेचता इमान अपना, जा रहा है आदमी ।रात का जो आवरण है, वह सुबह दिखता नहीं ।भोर का जो आवरण है, रात वो चलता नहीं ।आवरण जो है बचाता , धूल बारिस धूप से ।एक क्षण भी बच न पता , आदमी की भूँख से ।
आज है बाजार में , हर तरह का आवरण ।जैसा चाहो तुम चुनो, तैयार है सब आवरण ।आत्मा का आवरण, तन को दिखाता आवरण ।आचरण का आवरण, मन को छुपाता आवरण ।आवरण के ढेर में , कहीं खो गया है आदमी ।भूल कर इंसानियत , बस आवरण है आदमी ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
आवरण के ढेर में कहीं खो गया है आदमी
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति और कड़ुवा सच...
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