हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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गुरुवार, 30 सितंबर 2010

स्वागत है,

स्वागत है! पथिक तुम्हारा , तुम पहुंचे तोरण द्वार तक।
तेरा स्वागत करने आये , सब नगर निवासी द्वार तक।
तोरण द्वार है परिचायक , अब मंजिल बहुत समीप है।
जो कदम उठे थे राह पर , वो लक्ष्य के अब नजदीक है।

पर सावधान खुशकिस्मत राही , अभी चंद क़दमों की दूरी है।
संयत होकर कदम बढ़ावो , तुम्हे यात्रा करनी पूरी है।
दो पल चाहे सुस्ता लेना , मन को भी तुम बहला लेना।
संचित करके शक्ति नवीन , फिर पुन: राह पर चल देना।


ये उपलब्धि नहीं तेरी मंजिल , अभी तुमको आगे चलना है।
फहराकर विजय पताका , गौरवान्वित लक्ष्य को करना है।
फिर अपने विजय यात्रा का , श्रेय जनमानस को दे देना।
करके तुम अभिमान कोई , ना इतिहास कलंकित कर देना।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रघुपति राघव राजा राम

रघुपति राघव राजा राम , कलियुग व्यापा है श्री राम ।
राजनीति का बना अखाडा , जन्मभूमि और तेरा नाम ।

जनता पिसती दो पाटों में , दोनों तरफ है तेरा नाम ।
एक बिरोधी दल के नेता , एक बोलते जय श्री राम ।

एक जुए में बाजी लगाता , एक नग्न करता है राम ।
परदे के पीछे जाकर सब , भूल हैं जाते तेरा नाम ।

किसे कहें अब पांडव और , किसे कहें कौरव हम राम ।
अंतर नहीं रहा दोनों में , दोनों बेंच रहे हैं तेरा नाम ।

अब तो तुम ही न्याय करो , अवधपुरी के राजा राम ।
बिस्मिल्लाह करना है सबको , या कहना है जय श्री राम ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आदर्श

जीवन के आदर्शों की , है लिखी पोथियाँ मानव ने ।
अफ़सोस मगर उसमे कितना , स्वयं अपनाया मानव ने ।
जितना सहज है औरों को , पाठ पढ़ाना आदर्शों का ।
कठिन है उतना ही उस पर , स्वयं चलना मानव का ।
है औरों के लिए अलग , और अपने लिए अलग पैमाना ।
यही संस्कृति कलयुग की, इस पर ही चलता आज जमाना । २१/०४/2005

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"अनंत" कलयुग में है जन्मे आप, फिर मानव होने का अभिशाप ।
मैंने देखा पाठ पढ़ाते , औरों को सुन्दर हैं आप ।
पर चलिए सत्य जानते हैं , ये है मीठा सुखद एहसास ।
लेकिन क्या कभी सोंचा है , क्यों भटक राह से जाते आप । २५/०३/2007
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© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

सावधान ! हे पथिक

सावधान ! हे पथिक , तुम लक्ष्य से भटक रहे ।
छोड़ कर तुम राह को , पगडंडियों पर चल रहे ।
दूर है मंजिल तेरी , अनगिनत अवरोध हैं ।
राह में रुकना नहीं , क्या इसका तुमको बोध है ?
तूने किया था प्रण ये , लक्ष्य को पायेगा तू ।
यूँ भटक कर राह में , कैसे पहुँच पायेगा तू ?

सावधान हो पथिक , लक्ष्य अभी अविजित है । 
कर्म से ही संसार का , भाग्य भी सृजित  है ।
याद कर तू प्रण अपना , जो पूरा होना है अभी ।
देर है किस बात कि , तुझको सम्भलना  है अभी ।
गलतियाँ जो हो गयीं , प्राश्चित उसका भी है ।
लक्ष्य से भटका है तू , लक्ष्य जीवित अब भी है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

अंतर्यामी विधाता

माँगना क्या उस प्रभु से , जो जगत को है चलाता ।
तीनो लोकों-कालों का , स्वामी है अंतर्यामी विधाता ।
जानता है स्वयं ही वो , क्या चाहिए जग में किसे ।
क्या भाग्य है किसका यहाँ , कब क्या किसे देना यहाँ ।
इन्सान हैं कठपुतलियाँ , जिनको चलाता है बिधाता ।
जब जैसा उसे भाता यहाँ , वैसा ही सबको नचाता ।

मै भी हूँ कठपुतली ही , कोई और नहीं अस्तित्व है ।
ना मेरा निज कर्म है , ना कोई निज धर्म है ।
जो भी है जग में मेरा , सब का कारक है विधाता ।
जो भी होगा भविष्य में , उसका भी निर्णायक विधाता ।
फिर क्या माँगू मै अभी , मुझको चलाता है विधाता ।
चाहता क्या मन मेरा , जानता है सब विधाता ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 26 सितंबर 2010

जिंदगी

क्यों बनाते जिंदगी को , नर्क जैसा तुम यहाँ ।
नर्क तो पहले से ही , हर तरफ फैला यहाँ ।
चार दिन की जिंदगी , तुम उसे हँस कर जियो ।
दुश्मनी सब भूल कर , दोस्त बनकर तुम जियो ।
आज लगा है हाट यहाँ , बस दो पल का ठाठ यहाँ ।
गुजरेगा ज्यों कारवां , खाली होंगे सब घाट यहाँ ।
आज बहारे बसंत यहाँ , झुंकने दो फूलों की डालें ।
फिर जब पतझड़ आएगा , सूनी होंगी सारी डालें ।
जब तक गाती है कोयल, गाने दो उसको मस्ती में ।
कोयल के चुप होते ही , बस कौवों होंगे बस्ती में ।
मत बाँधो तुम नदियों को , बहने दो जब तक बहती हैं ।
तेरे पापों के कलुष से वो , पहले ही मैली रहती हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 25 सितंबर 2010

कौन हैं वो लोग जो चाहते है कि रोग का निदान ना हो....?

पहले उच्चतम न्यायलय की लखनऊ बेंच में अनावश्यक अडंगेबाजी का प्रयास और वहां असफल होने के बाद अब सर्वोच्च न्यायलय के मध्यम से अनावश्यक अडंगेबाजी ।

कौन हैं वो लोग जो चाहते है कि रोग का निदान ना हो और इस देश में एक नासूर हमेशा हमेशा बना रहे......
क्या ये मीडिया में अनावश्यक प्रचार पाने के लिए लालयित लोग हैं या अपने को जरुरत से ज्यादा समझदार समझने वाले लोग हैं ?
इस देश में सभी को आजादी है मगर इसका अर्थ ये नहीं है कि आप दूसरों की आजादी में जबरदस्ती दखल देने लगें  ।

राजनीति , धर्म , समाजसेवा के ठेकेदारों की रोजी रोटी चलने के लिए आवश्यक है कि कोई ना कोई समस्या बनी रहे, और अगर एक समस्या  समाप्त हो रही है तो तुरंत दूसरी समस्या उत्पन्न की जाय ।
यहां मूर्ख बनाने और बनने वालों की भी कमी नहीं है ....
मीडिया चैनल समझा रहें है कि ये मंदिर , मस्जिद का फैसला नहीं है , ये तो केवल भूमि के स्वामित्त्व का फैसला है ।
क्या ये इतना ही सीधा है ?
अरे अगर भूमि का स्वामित्त्व उस पक्षकार के तरफ जाता है जो हिन्दू है तो जाहिर सी बात है कि वो कहेगा कि अब ये मेरी जमीन है तो यहाँ मंदिर बनेगा और ये मंदिर वालों की ही जीत है और अगर भूमि स्वामित्त्व उस पक्षकार की तरफ जाता है जो मुस्लिम है तो वो कहेगा कि मेरी जमीन खाली करो यहाँ मेरी मस्जिद बनेगी और ये ममजिद वालों की जीत है ।
तो सीधे सीधे यह मानना चाहिए की अदालत यह निर्धारित करेगी कि वहां क्या बनना चाहिए ।

और जो लोग कहते है कि आपसी बातचीत से मामले को हल करने का समय दिया जाना चाहिए तो वो लोग अब तक कहाँ थे ?
अपने घरों में बैठे अपने बच्चों , नाती , पोतों को गोद में खिलाने में व्यस्त थे अब तक ?
इतने वर्षों से क्या कर रहे थे वो लोग ?
अब अचानक कौन सा सुलह कर लेंगे ?
और जो महानुभाव लोग इसके पैरोकार हैं उनसे ये भी पूंछा जाना चाहिए कि उनके पास सुलह की क्या योजना है ?
उनकी और उनके योजना की देश में स्वीकारिता कितनी है ?
और सत्ता और धर्म के दलालों पर उनकी पकड़ कितनी है ?

मजाक बना दिया है लोगों ने देश में ।
ना खुद कोई फैसला कर सकते है , ना देश के विधान को कोई फैसला करने दे रहे है ?
कोई कह रहा है कि इस फैसले से साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ जायेगा ।
अरे फैसला ना आने से कौन सा बड़ा भाईचारा पनपा जा रहा है । हाँ एक घाव नासूर बनकर अन्दर ही अन्दर टीसता जरुर जा रहा है दोनों सम्प्रदायों में , जो भाईचारे के लिए अनंत तक अवरोध हो सकता है ।
मानव जाति बड़े से बड़े दुःख और क्षति को बर्दास्त कर लेता है फिर चाहे वो उसके किसी अपने के जीवन समाप्त हो जाने का दुःख हो या अपना सर्वस खो देने की क्षति ।

तो क्यों नहीं जो कल होना है उसे आज होने देते है......
जो होना है हो जाने दो , आग लगनी है लग जाने दो , कम से कम जो राख बचेगी उसपर तो नयी इबारत लिखी जा सकेगी ...
और जमाना भी देख और पहचान लेगा कि कौन लोग हैं जो आग लगाने वाले है । जो अपने आप को देश के न्यायालय से ऊपर मानते है , देश के विधान को दर-किनार कर अपनी रोटी सेंकने को तत्पर है ।

अगर हम विकसित हो गए है , समझदार हो गए है , सहनशील हो गएँ है तो जो होनी है और उसे अनंत काल तक नहीं टाल सकते है उसे आज क्यों नहीं होने दे रहे है...क्यों अपने संतानों का जीवन भी अँधेरे के गर्त में धकेलने को तत्पर हैं । जब सभी तथाकथित राजनेता , धर्म गुरु , समाजसेवक और जनता स्वयं से कोई समाधान नहीं खोज पा रही है तो अंतिम विकल्प न्यायालय में अनावश्यक की अडंगेबाजी क्यों की जा रही है ?
और विवादित ढांचा गिरने से ज्यादा बवाल तो अब नहीं ही होगा ये निश्चित है फिर अगर किसी एक की एक उंगली काटकर दो पूरे शरीर बच सकते है तो उसे बचा लेने हेतु आपरेशन करने की अनुमति चिकित्सक को क्यों नहीं दी जा रही है , क्यों नासूर पाल कर पूरा शरीर बर्बाद करने पर हम उतारू हैं ।

तो जो कल होना है उसे आज होने दो ...............जिससे कम से कम आने वाला कल तो सही हो सके ।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पछतावा

सोंचता होगा खुदा भी , क्यों बनाया इस जहाँ को ।
जानवर तक ठीक था , पर क्यों बनाया आदमी को ।
आदमी तक ठीक था , क्यों दिया उसे बुद्धि इतनी ।
बुद्धि तक भी ठीक था , क्यों किया उसे शुद्ध इतनी ।
छोड़ कर इंसानियत , अब वो देवता बनने चला ।
अपनी हकीकत को भुलाकर , स्वांग है रचने लगा ।

जन्म देने वो लगा , विज्ञान से आदमीं ।
नष्ट करने वो लगा , प्रकृति की सादगी ।
है उतारू तोड़ने को , सारे जहाँ का संतुलन ।
जाने क्या है सोंचता , पढ़ नहीं पाता मै मन ।
अब तो मुश्किल होती है , पहचानने में श्रृष्टि अपनी ।
सोंच कर पछता रहा हूँ , जो हुयी थी भूल अपनी ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

पहले चार पंक्तिया ओशों की फिर कुछ आगे अपनी बात ....

"मयकदा था - जाम था , साकी भी थी ।
जाम थे ओंठो पे जिनके , वो मै ना था ।
दूर कोने में अकेला , मै खड़ा था ।
शर्बते दीदार से , समझिये पाला पड़ा था ।"

पहली चार पंक्तिया ओशों की अब कुछ आगे अपनी बात ....

लेकर मै आया बोतल होश के शराब की , जितना चाहो पी लो आकर बेहिसाब का ।
बांटता हूँ निमंत्रण मै सारे समाज को , लक्ष्य़ है नींद में चलते हुए समाज का ।
बुलाया है मैंने सभी योगीराज को , संग दर दर भटकते सन्यासी समाज को ।
उन्हें भी जो पिए हैं नशीले पदार्थ को , नशेड़ी, गंजेड़ी और भंगेड़ी समाज को ।

आयेंगे वो भी जो हैं पतित समाज के , भोगते है जो यहाँ औरों के भाग को ।
निमंत्रित यहाँ सारा सज्जन समाज भी , जो मन में दबाये कुंठा और राज को ।
नर ही नहीं नारी जगत भी बुलाया है , माँ, बहन, बेटी सब उसमें समाया है ।
यार,दोस्त,रिश्ते-नाते को भी निमंत्रण हैं, आयोजन स्थल पर आज अभिमन्त्रण है ।

एक ही शराब की बोतल है पास में , जितना पिलाओ नहीं चुकती कभी प्यास से ।
सोमरस भरा है इसमे ऋषियों के पास से , सुरा भी मिली है इसमें असुर समाज से ।
मयकदा , जाम और साकी भी आज हैं , आवो और चख लो तुम भी थोड़ा पास से ।
नया जीवन ये देती अमरता के साथ ही , मृत्यु को मैं बाँटता नये जीवन के आस से ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
 

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अंतर

होती कठोर सच की धरती , थक जाते चलने से लोग ।
नर्म बिछावन होता  झूंठ , चलते हैं उस पर सब लोग ।
सच की राह में कंकर पत्थर , और कटीली झाड़ी हैं ।
पगडण्डी है पतली जिसपर , चलते पैदल नर नारी हैं ।
झूंठ की राह है राजमार्ग , उस पर चलती कई सवारी ।
हर पल मेला रहता उसपर , चलते हैं शासक व्यापारी ।
संबल पाता निर्बल भी , झूंठ की राह पर चलने से ।
दुर्जन का नहीं होता भय , दुर्जन के संग चलने से ।
सच की राह अँधेरी है , निज का प्रकाश ले चलते लोग ।
झूंठ की राह सरल इतनी , अंधियारे में चल लेते लोग ।
सच की राह में दुर्जन भी , घात लगाये रहते हैं ।
झूंठ की राह में सज्जन भी , अधिकार जमाये रहते है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आइये अभिवादन करें

         मित्रों महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम किसका अभिवादन करें , महत्वपूर्ण यह है कि हम वास्तविक अर्थों में अभिवादनशील बनें क्योंकि एक अभिवादनशील व्यक्ति ही अहंकार को छोड़ कर सच्चे अर्थों में झुंक सकता है वरना आज हमारा झुंकना भी एक व्यवसाय हो गया है जिसके मध्यम से हम किसी से कुछ पाने की , कुछ खोने के भाव से बचने की, दूसरों की चापलूसी कर उसे प्रशन्न करने की अथवा भविष्य में किसी भावी लाभ को ध्यान में रखकर संबन्धों की बुनियाद रखने हेतु एक निवेश करने जैसा प्रयास करने लगते है । और तब हम मन में भले सामने वाले को गलियां दे रहे हो, उसकी पीठ पीछे उसे भला-बुरा कहते हो उसके परन्तु सामने ऐसा दर्शाते है कि जैसे हमसे ज्यादा आदर भाव किसी और में हो ही नहीं सकता । और सबसे बड़ी बात इन हालातों में यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम जिसका अभिवादन कर रहे है उसकी औकात , अधिकार , पहुँच कितनी है ? और वो हमारे बारे में क्या सोंचता है ?

मैंने देखा है यह संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जिन्हें अपने माता-पिता,भाई,गुरुजन आदि का होली , दीपावली, ईद , बकरीद जैसे पर्वों पर भी अभिवादन करने कि फुर्सत और तमीज नहीं है मगर अपने लोभ , लालच में वो अपने अधिकारियों , नेतावों , दलालों का प्रतिदिन अभिवादन करते रहते हैं  ।

मगर जब हम अभिवादनशील होते है तब यह फर्क नहीं पड़ता कि हमारे अभिवादन को स्वीकार करने वाला कौन है , उसका सामर्थ्य  क्या है, उसने हमें कोई लाभ पहुँचाया है या नहीं,  और उसके सामने झुंकने पर हमारा मान घट रहा है या बढ रहा है ।

इस प्रकार जिस अभिवादन में कोई लोभ, आकांक्षा, चतुराई, भय अथवा स्वयं के अहम् का तुष्टिकरण नहीं होता है, और जो काल,पात्र,स्थान को देख  कर निर्धारित नहीं होता है वही सच्चे अर्थों में हमारा अभिवादन होता है , हमारी कृतज्ञता होती है उस सबके लिए जो हमें कहीं से भी प्राप्त हुआ है या होना है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?

नफ़रत के जब बीज बो रहे, धर्म ध्वजा के पहरेदार ।
कैसे बचेगी मानवता , यहाँ सब के सब हैं लम्बरदार ।
पहले तो दीवारें उठीं , सब धर्मो के बीचो बीच ।
फिर खिच गयी लकीरे देखो , जाति-पांति के बीचो बीच ।
शेष बचा था जो कुछ देखो , वर्गों में फिर बाँटा गया ।
चुन चुन कर इंसानों को , इंसानों से ही काटा गया ।

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई , बौध-जैन-यहूदी भाई ।
सभी हैं ऊँचे एक दूजे से , सब के सब आवारा भाई ।
सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?
कौन बनाता किसे यहाँ , कौन चलता है इस जग को ?
शायद उनके मध्य भी हो , बँटवारा उनके कर्तव्यों का ।
कोई साझा सरकार बनाकर , सभी चलाते हो इस जग को ।

फिर भी कोई एक तो होगा , जिसने सबको पैदा किया ?
फिर जाने कब क्यों किसने , खायीं मध्य में खोद दिया ।
अब जो बीत गया सो बीत गया , जो आने वाला है वो देखो ।
सत्य गुनो मिल सब धर्मों का , आडम्बर को कचड़े में फेंको ।
काश अगर सब सुन पायें , बस अपने अंतरमन की बात ।
बच जाये ये धरती और , बच जाये मानवता की लाज ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 22 सितंबर 2010

इस १००वे पोस्ट पर आप सभी से पुन: अनुरोध है..

प्रिय स्नेहीजन ,
       आप सभी के द्वारा प्रदान मनोबल से मै ९९ के फेर से निकल कर अपनी १००वी  पोस्ट आपके समक्ष ब्लागजगत पर प्रस्तुत करने जा रहा हूँ , पूर्व की ९९ पोस्टों में कुछ ब्लाग पर सीधे लिखी गयी नयी रचनाएँ थी तो शेष मेरी डायरी  के पन्नो से सीधे निकलकर आपके सामने आयी थीं
इनमे से कुछ आपको पसंद आयी होंगी, कुछ नहीं पसंद आयी होंगी, और कुछ तो हवा में ही बिखरी-बिखरी नजर आयीं होगी और इसका मुझे भली भांति एहसास है क्योंकि पहले लिखी गयी मेरी कई रचनाये तो आज स्वयं मुझे भी ज्यादा नहीं भाती है मगर क्या करू किस समय क्या लिखता हूँ वो इस बात पर निर्भर होता है की उस समय मेरी मन: स्थित या मनोदशा कैसी है और सामान्यतया किसी दायरे में बँध कर रहना या सोंचना मुझे भाता नहीं तो अपना मान बनाये रखने के लिए अपने मन  से अन्याय नहीं कर सकता , इसी लिए जो भी था, जैसा भी था वो वैसा ही आपके सामने ले आया, और आगे भी यही करता रहूँगा ।
इस अवधि में साथी ब्लागरों एवं  प्रिय स्नेहीजनो ने सदैव मेरा मनोबल बढाया मगर मुझे किसी ने कभी मेरी कमियों पर मेरा ध्यान नहीं दिलाया। चलिए जीवन चलते रहने का ही नाम है ।

आज अपने इस १००वे पोस्ट पर आप सभी से पुन: अनुरोध है कि :-

शब्दों पर ना जाये मेरे, बस भावों पर ही ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे, उसे भूल समझकर टाल दें ।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में, मै शब्दों में नहीं रहता हूँ ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, उसे अपनी जबानी कहता हूँ ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो, या छल और कपट की बातें हो ।
सब राग-रंग और भेष तेरे, बस शब्द लिखे मेरे अपने है ।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत, या समझो तुम इसे फ़साना ।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना ।

आप चाहे जब परख लें, अपनी कसौटी पर मुझे ।
मै सदा मै ही रहूँगा, आप चाहे जो रहें ।
मुझको तो लगते है सुहाने, इंद्र धनुष के रंग सब ।
आप कोई एक रंग, मुझ पर चढ़ा ना दीजिये ।

मै कहाँ कहता की मुझमें, दोष कोई है नहीं ।
आप दया करके मुझे, देवत्व ना दे दीजिये ।
मै नहीं नायक कोई, ना मेरा है गुट कोई ।
पर भेड़ो सा चलना मुझे, आज तक आया नहीं ।

यूँ क्रांति का झंडा कोई, मै नहीं लहराता हूँ ।
पर सर झुककर के कभी, चुपचाप नहीं चल पाता हूँ ।
आप चाहे जो लिखे, मनुष्य होने के नियम ।
मै मनुष्यता छोड़ कर, नियमो से बंध पाता नहीं ।

आप भले कह दें इसे, है बगावत ये मेरी ।
मै इसे कहता सदा, ये स्वतंत्रता है मेरी ।
फिर आप चाहे जिस तरह, परख मुझको लीजिये ।
मै सदा मै ही रहूँगा, मुझे नाम कुछ भी दीजिये ।

हो सके तो आप मेरी, बात समझ लीजिये ।
यदि दो पल है बहुत, एक पल तो दीजिये ।
तारीफ करें ना केवल मेरी , कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे, संज्ञान में मेरी डाल दें ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

पीने दो मुझको भी

पुरनम ना हुयी हो आँखे जब , कैसे नजर हटा लूँ मै ।
जब तक होश है बाकी कैसे , अपनी पीठ दिखा दूँ मै ।
जब साईं मेरा बाँट रहा , क्यों नाप तौल कर आज पिऊ ।
अब आई जशन की बारी है , क्यों खड़ा कहीं एकांत रहूँ ।
देखो आज बहारें भी , छक कर पीने आयीं हैं ।
नील-गगन और धरती भी , मदहोशी को पायीं है ।

पीने दो मुझको भी छक कर , जन्मो का मै प्यासा खड़ा ।
इस पर है मदिरा साईं की , उस पर है रुखा जगत खड़ा ।
जब तक शेष है मै मुझमें , मदहोशी कहाँ आ पायेगी ।
इस छोटे से दिल में कैसे , साकी की जगह हो पायेगी ।
मत रोंको मुझको आज अभी , मिट जाने दो मयखाने में ।
जो आज चूक मै गया कहीं , कई जन्म लगेंगे जाने में ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

नियति निगोड़ी

रूठो ना तुम मुझसे प्रियवर , नहीं दोष इसमें मेरा ।
आ जाऊंगा लौट के मै , जैसे होगा नया सबेरा ।
मै भी आहत हूँ बाणों से , जो नियति के हाथों छूटे हैं ।
घायल है मेरा अंतरमन , कुछ अपने भी मुझसे रूठे है ।
तन तो शायद सह जाता , मन नहीं चोट सह पाया है ।
कुटिल नियति की चालो ने , हमको बहुत सताया है ।

सोंचा था कुछ बातें होगी , गीत सुनेगें तुमसे हम ।
बाँहों में तुमको भरकर , सुन्दर सपने देखेंगे हम ।
लेकिन नियति निगोड़ी को , स्वीकार नहीं है ख़ुशी हमारी ।
रात चांदनी आती उससे , पहले आ गयी जाने की बारी ।
बनकर सौतन तेरी वो, जबरन मुझे बुलाती है ।
मुझको मेरे कर्तव्यों की , सौगंध याद दिलाती है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

हवस तो हवस है

हवस इन्सान को शैतान बना देती है ,
अच्छे और बुरे का वो भेद मिटा देती है ।
आदमी को आदमी का शिकार बना देती है ,
औरों की लाशों पर महल बना देती है ।
हवस में सोंचने की बात कहाँ होती है ,
अपने पराये की पहचान कहाँ होती है ।
इसमे तो जितना डूबो वो भी कम है ,
टूटते रिश्तों का होता कहाँ गम है ।
हवस शैतान की भूँख को जगती है ,
मन में हैवानियत का भाव वो उठती है ।
जुर्म और जरायम का बाजार वो चलती है ,
इन्सान की जरूरते अनंत तक बढ़ाती है ।
हवस तो हवस है साध्य चाहे जो हो ,
व्यक्ति से वस्तु तक साधन चाहे जो हो ।
भले वो पेट की हो लाचार हवस ,
या फिर जिस्म की रूपसी हवस हो ।
हवस को चाहिए हर समय कोई शिकार ,
खेल कर जिससे हो सके वो फरार ।
रिश्तों और भावना की उसे है फ़िक्र कब ,
हर तरह की भूँख से  उसका है करार ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 20 सितंबर 2010

आँधियों का दौर है

आँधियों का दौर है , सर झुकाकर चलने दो ।
आँधियों के बाद भी , सर उठाकर चलना है ।
जग भले कहे इसे कायरता , कौटिल्य की ये कूटनीति ।
इसके बिना सफल कब , होती कोई युद्ध नीति ।

हर सर की होती मर्यादा , हर दर पे झुकना ठीक नहीं ।
लेकिन बिना सबब के कोई , शीश गवाँना उचित नहीं ।
वो वृक्ष उखड जाते है जो , हर छण तन कर रहते है ।
जीवित रहते वृक्ष वही जो , कुछ पल नम्र भी रहते हैं ।

है आज अगर सत्ता उनकी , मदमस्त उन्हें तुम और करो ।
तुम शीश झुकाकर भले चलो , मठ्ठे से जड़े उनकी भरो ।
फिर जब होगा अंतिम फैसला , सीने पर तीर चलाना तुम ।
विस्मित करके अरि-दल को , फिर विजयी शीश उठाना तुम ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

कल्कि पुराण : मेरा पुनर्जन्म


कहते है सतयुग में , मै ही हिरणाकश्यप था । 
मेरे कठोरतम शासन से , कम्पित सारा जग था ।
जन्म लिया प्रह्लाद ने , फिर मेरे ही अंश से ।
मुझे मारने के खातिर , याचना किया नरसिंह से ।
मर कर जब मै पहुंचा ऊपर , छीना सिंहासन इन्द्र का ।
घबड़ाकर देवो ने मुझसे , अनुरोध किया फिर जन्म का ।

तब तक सतयुग बीत चुका था , पृथ्वी पर चल रहा था त्रेता ।
बिखर चुके थे राक्षस सारे , छिन गया  रसातल था उनका । 
इस बार मै जन्मा ब्रह्मण था , पर प्रवित्ति वही राक्षसी  थी ।
मेरे कठोर तप के आगे , फिर झुक गयी दैवीय शक्ति थी ।
रावण था मेरा नाम मगर , बन गया दशानन मै बल से ।
छीन लिया सोने की लंका , अपने पराक्रम के बल से ।

लगा मिटाने फिर मै जग से , भोग विलास में डूबे प्राणी ।
हाहाकार मचा फिर जग में , लगे भागने कायर प्राणी ।
जन्म लिया फिर राम ने , और सौदा किया मेरी मृत्यु का ।
मृत्युलोक के बदले मुझको , सिंहासन दिया फिर इन्द्र का ।
मगर कुटिल था इन्द्र बहुत , उबा दिया मुझे स्वर्ग से ।
छोड़ा मैंने भोग विलास , लौटा करने धरती पर राज ।


फिर मेरे लौटने के पहले , लौट चुके थे राम भी ।
धरती पर आ गया था द्वापर , बीत चुका था त्रेता भी ।
इस बार हुआ मेरा जन्म जहाँ , वो यदुवंशो का घर था ।
भूल कर अपना बाहु-बल , वो पशु बल पर निर्भर था ।
युवा हुवा तो मैंने मांगी , उत्तराधिकार में अपनी सत्ता ।
मिली नही जब बातों से , छीन ली मैंने बल से सत्ता ।

मैंने कठोरतम नियमो को , फिर से लागू किये सभी ।
यज्ञ भाग के छिनने से , व्याकुल हो गए देव सभी  ।
पाकर प्रेरणा मेरी ही , तब जन्म लिया फिर कृष्ण ने ।
मेरी कृपा से ही सारी , लीला किया सब कृष्ण ने ।
फिर से आया वो दिन जब , मुझको वापस स्वर्ग मिला ।
आराम मिला मुझको थोड़ा , जग को गीता ग्रन्थ मिला ।

द्वापर बीता जब धरती पर , शासन कलयुग का आया ।
कलयुग ने पाखंड रचाकर , मानव को फिर से भटकाया ।
जाति पांति में बांटा समाज , भ्रष्टाचार को पनपाया ।
धर्म के नाम पर मची लूट , बहु ईश्वर का युग आया ।
देख जगत की हालत को , स्वर्ग में मै फिर रह ना पाया ।
लेकर जन्म पुन: धरा पर , लो आप के मध्य मै वापस आया ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 19 सितंबर 2010

ताश के गुलाम

ताश के खिलाडियों को समर्पित......

सुनो ताश के सभी गुलामों , लाओ जाकर ताश के इक्के ।
बेगम/रानी के संग जाने को , तैयार हो रहे ताश के बदिश/राजे ।
महिफिल आज जमेगी देखो , जाओ सजाओ चिड़ी का बाग ।
मौज करेंगे हम सब आज , चलो जलाएं मिलकर आग ।
ईट का बदिश/राजा कानां है , ये राज छुपाये तुम रखना ।
हुकुम की बेगम/रानी सायानी है ,  ये बात ना खुलकर तुम कहना ।
नहले पर जब दहला गिरे , इक्के से देना तुम दाब ।
तुरुप/रंग की बाजी चलकर फिर , करना सबसे तुम आदाब ।
रंग में भंग अगर कोई डाले , बच कर ना वो जाने पाये ।
कोई चाहे जितना जोर लगाये , दहला ना ले जाने पाये ।
रोंक सके जो ट्रंप/तुरुप का इक्का , पहनायेगा तुमको ताज ।
बावन पत्ते ताश के होते , लेकिन वो सबका सरताज ।
बस ध्यान रहे केवल इतना , जोर ना उसका घटने पाये ।
उसके पीछे चलने वाली , चाल ना कोई कटने पाये ।
गिरे कौन से पत्ते अबतक , तुमको रखना होगा याद ।
हाथ में कौन से पत्ते किसके , जानोगे तुम उसके बाद ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 18 सितंबर 2010

क्षमा करो हे मातु... आशीष माँगने मै आया ।


क्षमा करो हे मातु सरस्वती , जिह्वा का मान ना रख पाया ।
करके प्रयोग कटु शब्दों का , अपमान तेरा करता आया ।
अपने लिखे हुए शब्दों से , भला ना कोई कर पाया ।
उलटे औरों का अहित सदा , अब तक मै करता आया ।

क्षमा करो हे मातु भगवती , ना सज्जनता अपना पाया ।
कुटिल कलुष प्राणी बनकर , दुर्जनता ही करता आया ।
दया धर्म का किया दिखावा , जन कल्याण ना कोई कर पाया ।
भुला सभी की आकांक्षा , निज स्वार्थ सिद्ध करता आया ।

क्षमा करो हे मातु गायत्री , मै तेज ना धारण कर पाया ।
उलटे अपने अंतरतम से , अँधियारा घना करता आया ।
अगणित अवसर तुमने दिया , पहचान ना उसको मै पाया ।
हठ और अहम् के दोषों से , घनीभूत स्वयं को करता आया ।

क्षमा करो हे मातु धारणी , मानव नहीं मै बन पाया ।
राक्षस और निशाचर सा , मै जीवन अब तक जीता आया ।
विद्दया तप ना दान शील , ना ज्ञान धर्म अपना पाया ।
तेरे ऊपर बनकर भार ,  पशु सा विचरण करता आया ।

क्षमा करो हे मातु जननी , सुपुत्र नहीं मै बन पाया ।
तेरी सेवा कर सका ना मै , दूर ही तुझसे रहता आया ।
जन्म से लेकर अब तक मै , सदा ममता ही तुझसे पाया ।
पर कर्ज चुकाना मुझे दूध का , ये याद मुझे ना रह पाया ।

क्षमा करो हे मातु सभी , समझ देर से मै पाया ।
क्षमा मांगने तेरे आगे , मै हाथ जोड़ कर अब आया ।
कर सको क्षमा मुझ अधम को जो , समझूँगा वरदान प्रगति का मै पाया ।
सदकर्मो से  ना डिगूं कभी , यही आशीष माँगने मै आया ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मुक्ति

बस तेरी प्रतिक्षा में , गुजार  दी जिंदगी हमने ।
आप जो आये नहीं , उजाड़ ली जिंदगी हमने ।
सब्र की सीमाएं थी , हम प्रतिक्षा करते कब तक ।
कागजो को स्याहियों से , हम भरा करते कब तक ।
आपने ना भुलाने की , हमसे कसम ले डाली थी ।
छोड़ कर जाना नहीं , ये बात भी उसमे डाली थी ।
फिर आपके भूल जाने से , जिंदगी मेरी खाली थी ।
छोड़ दी मैंने उसे , क्यों करनी उसकी रखवाली थी ।

वादा निभाया मैंने और ,लाज बच गयी तेरी भी ।
अगले जन्म में मिलने की , आस बच गयी मेरी भी ।
मुक्त मै करता हूँ तुमको , तेरे भूले बिसरे वादों से ।
मत करना तुम ग्लानि कभी , अपने अधूरे वादों से ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

अथ श्री//मती अफवाह ...


क्या कहना अफवाहों का , वो बेसिर पैर की होती है ।
कहाँ से उनका जन्म हुआ , ये बात छिपी ही रहती है ।
जन-मानस है संचरण मार्ग , और वायु वेग से चलती हैं ।
अल्प काल में सुरसा सा , सौ योजन का मुख करती हैं ।
अजर अमर अविनाशी होकर , झूंठ को सच में बदलतीं हैं ।
इनकी माया के आगे , दाल नहीं सच की गलती है ।
है शीश नहीं जिसे काट सकें , ना पैर हैं जिसको बांध सके ।
स्थूल नहीं काया इनकी , जिसको कैद में डाल सकें ।

विकसित हो मानव कितना , ना इसकी गति को थाम सके ।
हो नगर मोहल्ला चाहे गाँव , अफवाह का जन्म ना टाल सके ।
जितना ही प्रतिकार करो , उतनी यह बलवान बने ।
कार्य सिद्ध हो जाने पर , स्वयं से अंतर्धान बने ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

नसीहत....

वक्त की है ये नसीहत , छोड़ दे अभिमान को ।
मत कुचलना तू कभी , किसी गैर के मान को ।
आज तेरा राज है , किसने देखा कल यहाँ ।
एक पल की देर में , है बदलता सब जहाँ ।
दोस्त कब दुश्मन बने , कब बिखर जाये समां ।
सर छुपाने के लिए , जाना पड़े तुझको कहाँ ।

झोपड़े जिनके जलाता , सेंकने को आग तू ।
क्या पता उनके यहाँ , हो शरण को मोहताज तू ।
याद रख इन्सान तू , ये वक्त ही है शहंशाह ।
उसकी मर्जी से ही बनते , और बिगड़ते सब निशां ।
जो भी कर तू सोंच कर , पछताना ना तुझको पड़े ।
सोंच कर बीता हुआ , शर्माना ना तुझको पड़े ।
एक सा बस रह सदा , इंसानियत ना भूल तू ।
वक्त की सुनकर नसीहत , सँभल जा इन्सान तू ।
खो गया अवसर अगर , फिर ना वो मिल पायेगा ।
अभिमान की भरपाई तू , ना अंत तक कर पायेगा ।
गर्व में बोले हुए , हर शब्द पर पछतायेगा ।
मुह छुपकर तू जहाँ से , किस तरह रह पायेगा ।
चाहते हैं हम सभी , ना हालात बिगड़े कभी ।
वक्त ने इन्सान से , कब वादा किया कोई कभी ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

राजनीत

अपनो पर करम गैरों पर सितम , यही राजनीत बतलाती है ।
जो भी मिले बस लूटे रहो , ये बात हमें सिखलाती है ।
क्या अपना क्या औरों का , जो हाथ लगा ले चलना है ।
अभी हाथ में अवसर है , फिर जाने कब ये मिलना है ।
जो चीज बिके वो बेंचे चलो , जो नहीं बिका उसे लेते चलो ।
ना होगा कबाड़ी वाले को , औने पौने में देते चलो ।
चौराहे जितने खाली हो , बुत अपना वहां लगाते रहो ।
पैसे देकर चमचों से , जिंदाबाद कहलाते रहो ।
रोजी रोटी भले ना दो , हवा में तीर चलाते रहो ।
सत्ता स्थिर रखनी हो , सत्ता के दलाल बनाते रहो ।
अपनो पर करम गैरों पर सितम , ये मूल मन्त्र अपनाते रहो ।
जो भी हो बिरोधी उसके मुख पर , कालिख सदा लगाते रहो ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

कोई बात है यारों ।

नदी की धार में बहना , बहुत आसान है यारों ।
   तैर पाओ अगर विपरीत , तो कोई बात है यारों ।

     बनाना नित नये रिश्ते , बहुत आसान है यारों ।
       निभा पाओ कठिन क्षण  में , तो कोई बात है यारों ।

         बादलों की घटा बनना , बहुत आसान है यारों ।
           बरस पाओ अगर मरू में ,  तो कोई बात है यारों ।

             सिखाना औरों को बातें , बहुत आसान है यारों ।
               कदम अपने उठाओ जब ,  तो कोई बात है यारों ।

                 हवा के पुल बनाना तो , बहुत आसान है यारों ।
                   हकीकत को समझ पाओ , तो कोई बात है यारों ।

                     मुझसे मिलना मेरे घर पर , बहुत आसान है यारों ।
                       मुझे घर अपने बुलाओ जब ,  तो कोई बात है यारों ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बदलाव


जीने की कला हम सीख रहे , जीने की चाहत खोकर भी ।
मरने की कला हम भूल गए , मरने की चाहत रखकर भी ।
वो दौर कठिन था फिर भी हम , औरों को सिखाया करते थे ।
ये दौर बहुत ही नाजुक है , अब स्वयं को जानना सीख रहे ।
वो उम्र और थी यारों जब , परवानों  सा हम जीते थे ।
ये उम्र अलग है यारों अब , इंसानों सा हम रहते है ।



देखो कैसे समय निरंतर , धीमे धीमे बदल रहा है ।
सभी पुरातन चीजें हमसे , चुपके चुपके छीन रहा है ।
भले दिया है उसने हमको , कुछ एक नये उपहार अभी ।
कुछ नूतन रिश्तों के पौधे , कुछ कंधों पर नये भार अभी ।
लेकिन भुला नहीं हम पाए , उस स्वर्णिम मधुर संसार को ।
जीवन मरण के बंधन में फिर , हम सीख रहे व्यापार को ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

अल्ला हो अकबर - जय श्रीराम ।

नफरत के जब बीज बो रहे , धर्म ध्वजा के लम्बरदार ।
प्रेम अहिंसा भाईचारा , कैसे बचायेंगे भगवान हर बार ।


रघुपति राघव राजा राम , जोर से बोलो जय श्रीराम ।
मंदिर वहीँ बनायेगे , चाहे देश में दंगा करवाएंगे ।
बच्चा बच्चा राम का , जन्मभूमि के काम का ।
सुलह नहीं हो पायेगी , रथ यात्रा फिर से आएगी ।
ये तो केवल झांकी है , अभी पूरा नाटक बाकी है ।
याचना नहीं अब रण होगा , संघर्ष बड़ा भीषण होगा ।
नीव खोद हम डालेंगे , मंदिर अवशेष निकालेंगे ।
सपथ तुम्हे श्रीराम की , अबकी बारी राम की ।
जन्म भूमि के काम ना आये , वो बेकार जवानी है ।
रक्त ना खौले इस पर भी, वो रक्त नहीं बस पानी है ।
राम लला हम आयेंगे , ढांचा सभी ढहायेंगे ।
मंदिर अबकी बनायेंगे , हम धर्म ध्वजा फहराएंगे ।
जो न्याय नहीं कर पाएंगे , हम उनको सबक सिखायेंगे ।
इतिहास के काले पन्नों को , हम केसरिया कर जायेंगे ।
तेरे नाम पर अपनी रोटी , सेंक सदा हम खायेंगे ।
भारत वर्ष को कैसे भी हम , हिन्दू राष्ट्र बनायेंगे ।
बस ख़बरदार...........!!
अल्ला हो अकबर-अल्ला हो अकबर ,इस्लाम के काम हम आयेंगे ।
फतवा जारी करो इमाम , लड़ने हम सब जायेंगे ।
नमाज भले ना पढ़ पावे ,  हम मस्जिद वहीँ बनायेगे ।
आक्रमणकारी बाबर के , नाम को सदा बचायेंगे ।
क्या है साक्ष्य राम थे जन्मे , भारत वर्ष की भूमि में ।
हाँ बाबर निश्चित आया था , चढ़ भारत वर्ष के सीने पे ।
मंदिर बन गया अगर वहां , इस्लाम खतरे में पड़ जायेगा ।
हम मर कर जन्नत जायेंगे  , जिहाद के काम जो आयेंगे  ।
अगर बनी ना मस्जिद अपनी , खून खराबा हो जायेगा ।
कश्मीर से लेकर केरल तक , हर चप्पा-चप्पा थर्रायेगा ।
हमें ना समझो तुम कमजोर , पडोसी भाई भी आएगा ।
जो हमसे टकराएगा , वो दोजख में जायेगा ।
हँस कर लिया था पाकिस्तान , लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान ।
घास फूस जो खायेगा , वो क्या हमसे लड़ पायेगा ।
ये कैसे हो सकता है , सुलह करें हम काफ़िर से । 
कैसे माने उसे फैसला , जो ना हो मन माफिक से ।
प्रेम अहिंसा भाईचारा , कैसे बचायेंगे पैगम्बर ।
नफरत के जब बीज बो रहे , सब धर्मो के आडम्बर ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 15 सितंबर 2010

मानवी महामाया

आँखों देखी बातें सारी , नहीं हकीकत होतीं है ।
मानव की माया देख अचंभित , ईश्वर की माया होती है ।

व्यूह बनाकर अपने से , मानव स्वयं को फँसाता है ।
निज स्वार्थ सिद्ध करने को , जाने क्या क्या ढोंग रचाता है ।

कातर स्वर में मदत मांगता , मन में मंद मंद मुस्काता है ।
कांटे में ज्यों चारा लगाकर , कोई मछली फँसाता है ।

फिर एक समय वो आता है , जब कोई ढाल बन जाता है ।
चक्रव्यूह में उसे फँसाकर , स्वयं बाहर निकल वो जाता है ।

अपनी माया के बल पर , मानव ईश्वर को छल लाता है ।
दृष्टि-भ्रम का जाल बिछा , वह बलि का बकरा सजाता है ।

स्वयं करता नहीं वो वफ़ा मगर , औरों से आस लगता है ।
आँखों देखी बातों औरों की , वो दृष्टि-भ्रम बतलाता है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

बस तुमको इतना ध्यान रहे...

कब किससे क्या कहना है , किस तरह से उसको कहना है ।
कितना कहना कितना सुनना , कब कुछ पल चुप रहना है ।
यदि तुमको इतना ध्यान रहे , ना आहत कोई इन्सान रहे ।
फिर औरों का भी मान रहे , संग अपना भी सम्मान रहे ।

बात प्रेम की हो चाहे , या आहत मन की बात कहें ।
सम्बन्ध प्रगाढ़ हो करना , या आरोपों की बात करें ।
लेन देन ही करना हो , या कडुवे सच को कहना हो ।
अपनो से कुछ कहना हो , या राजनीत में रहना हो ।

ना बात अधूरी रह जाये, ना अर्थ अनर्थ हो जाये ।
ना लाग लपेट रहे ज्यादा , ना भाषा लठ्ठमार रहे ।
बस तुमको सदा यह ध्यान रहे, ना शब्दों में अपमान रहे ।
फिर कटुता हो चाहे मन में , ना शब्दों में छुपा बाण रहे ।

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सोमवार, 13 सितंबर 2010

चाह रहा हूँ बस इतना...

नहीं चाहिए ऐसा कुछ , जो है हक़ यहाँ औरों का ।
ना चाह मुझे मै पा जाऊँ , संचित थाती गैरों का ।
नहीं देखता किसी पराई , वस्तु का मै कोई सपना ।
खुश हूँ मै उस सब से , जो कुछ जग में है अपना ।

इस जग में ईश्वर ने जब , सबको अलग बनाया है ।
उनके कर्मो पर आधारित , भाग्य अलग बनाया है ।
क्यों कर मन में लोभ जगे , देख परायी चीजों को ।
इर्ष्या से क्यों कर मै जलूँ , भाग्य देखकर औरों का ।

बीत गया जो भूत काल है , बदल नहीं सकते उसको ।
आना है जो आगे भविष्य , अनिश्चित कहते है उसको ।
वर्तमान पर हक़ अपना है , वर्तमान को ही जीना है ।
आगा-पीछा सोंच व्यर्थ में , समय नष्ट नहीं करना है ।

बनी रहे सदबुद्धि मेरी , हे ईश्वर मुझ पर कृपा करो ।
जो मेरा है मुझको दो , बस इतना मुझ पर कृपा करो ।
सहेज सकूँ अपनी चीजे , बस इतना मुझको सामर्थ्य दो ।
रहे कृपा मुझ पर तेरी , बस इतना ही मुझको वर दो ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 11 सितंबर 2010

हैरत है..!

मित्रों ईद, गणेश चतुर्थी एवं तीज की आप सभी को शुभकामनाये.....

हैरत है देखकर , कितना भीरु समाज है ।
धर्म के नाम पर , लड़ रहा वो आज है ।
तुम भले कहो इसे , ये नयी बात नहीं ।
धर्म है अगर कई , संघर्ष नयी बात नहीं ।
आस्थाएं है अलग , हैं अलग सबके जुडाव ।
हम सही है वो गलत , बस यहीं होता टकराव ।
हर किसी को प्यारी है, विचारधारा अपने मन की।
भावनाएं सबकी प्रबल, जो गुलाम है उनके मन की।
हस्तक्षेप किसी गैर का , कब सहा मन ने कभी ।
अपमान सह ले तन भले, मन नहीं सह पाता कभी।
जब विरोधी कर रहे, बिध्वंस हो निज धर्म का ।
कैसे देंखे मौन हो , अपमान कोई धर्म का ।
हैरत है देखकर , सोंच जनमानस की ये ।
धर्म के नाम पर , बरगलाया जाता है ये ।
जानवर के रूप में , इनके पुरखे थे कभी ।
मस्तिष्क का विकास कर , मनुष्य थे बने कभी ।
तन भले अलग हुआ , मन नहीं विकसित अभी ।
एक ही श्रस्टा यहाँ , पर लड़ रहे हम सभी ।

भूल कर उस धर्म को, जो मूल था सबका कभी।
अपने अहम् की तुष्टि को, कर रहे पूरा सभी।
हाँके जाते आज भी , भेड़ सा हम सभी ।
भूल कर सदभाव को , मूर्ख हैं बनते सभी ।
ढो रहे है आज भी , कूड़े कचड़े को सभी ।
रुक गया है आज क्या, मस्तिष्क का विकास भी।
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अब थोड़ा मुस्कुरा दें...

मेरे एक सुभचिन्तक ने मुझे काम के तनाव से राहत देने के लिए एक मेल भेजा था जिसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ ........


एक शराबी फुल टाईट होकर घर जा रहा था..
रास्ते में मंदिर के बाहर उसे एक पुजारी दिखा


शराबी ने पुजारी से पूंछा , सबसे बड़ा कौन ?
पुजारी ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा "मंदिर बड़ा".


शराबी : "मंदिर बड़ा तो धरती पे कैसे खड़ा"
पुजारी: "धरती बड़ी"


शराबी : "धरती बड़ी तो शेषनाग पे क्यूँ खड़ी "
पुजारी : "शेषनाग बड़ा"


शराबी : "शेषनाग बड़ा तो शिव के गले में क्यों पड़ा"
पुजारी : "शिव बड़ा"


शराबी : "शिव बड़ा तो परबत पर क्यों खड़ा"
पुजारी : "पर्बत बड़ा"


शराबी : "पर्बत बड़ा तो हनुमान की ऊँगली पे क्यों पड़ा"
पुजारी : "हनुमान बड़ा"


शराबी : "हनुमान बड़ा तो राम की चरणों में क्यों पड़ा"
पुजारी : "राम बड़ा"


शराबी : "राम बड़ा तो रावन के पीछे क्यूँ पड़ा"
पुजारी : "अरे मेरे बाप अब तू बता कौन बड़ा"


शराबी : "इस दुनिया में वो बड़ा, जो पूरी बोतल पी के अपनी टांगो पे खड़ा."

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

एतिहासिक घृणा

बचपन की कहानियों में , और जंतु बिज्ञान की किताबों में ।
इस बात का जिक्र होता है , आदमी का जानवरों से पुराना रिश्ता है ।
थे आदम के पुरखे जो , चार पैरों पर चलते थे ।
नोंच कर वो औरों को , अपना पेट भरते थे ।
घूमते थे नग्न वो , था नहीं रिश्ता कोई ।
मनुष्य को मनुष्य ही , था नहीं जँचता कोई ।


सदियों पहले की बात है , जानवर बन गया आदमी ।
दो पैरों पर चलने लगा , शिकार हाथ से करने लगा ।
जन्म शर्म को उसने दिया , वस्त्रों का अविष्कार किया ।
अपना अधिकार जताने को , परिवार का उसने रूप दिया ।
पूंछ छिपाकर अन्दर की , दांत घटाकर छोटा किया ।
मगर मिटा ना पाया वो , औरों के प्रति अपनी घृणा ।

गुजरी हुयी सदियों में , उसने बहुत कुछ सीखा है ।
कैसे सजाकर प्लेट में , माँस को चिचोड़ा जाता है ।
कैसे दिन-दहाड़े राह में , अस्मत को लूटा जाता है ।
कैसे पहनकर वस्त्रो को , नग्न दिखा जाता है ।
कैसे झुका कर घुटनों पर , औरों को जीता जाता है ।
कैसे आधुनिक रूपों में , घृणा छिपाया जाता है ।

अपनी घृणा छिपाने को , उसने तरकीबे खोजी बहुत ।
कपडे सुन्दर बनवाये , आभूषण तन पर सजवाये ।
बाल सवाँरे उसने अपने , धर्म चलाये उसने कितने ।
मानवता-भाईचारे का , स्वांग रचाया सबसे मिल कर ।
लेकिन अपने अंदर की , घृणा मिटा ना पाया वो ।
घृणा की आग में तपकर , पत्थर दिल बन पाया वो ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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