हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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रविवार, 26 सितंबर 2010

जिंदगी

क्यों बनाते जिंदगी को , नर्क जैसा तुम यहाँ ।
नर्क तो पहले से ही , हर तरफ फैला यहाँ ।
चार दिन की जिंदगी , तुम उसे हँस कर जियो ।
दुश्मनी सब भूल कर , दोस्त बनकर तुम जियो ।
आज लगा है हाट यहाँ , बस दो पल का ठाठ यहाँ ।
गुजरेगा ज्यों कारवां , खाली होंगे सब घाट यहाँ ।
आज बहारे बसंत यहाँ , झुंकने दो फूलों की डालें ।
फिर जब पतझड़ आएगा , सूनी होंगी सारी डालें ।
जब तक गाती है कोयल, गाने दो उसको मस्ती में ।
कोयल के चुप होते ही , बस कौवों होंगे बस्ती में ।
मत बाँधो तुम नदियों को , बहने दो जब तक बहती हैं ।
तेरे पापों के कलुष से वो , पहले ही मैली रहती हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

कविता में बहुत अच्छा संदेश दिया है आपने...
इस रचना के लिए बधाई स्वीकर करें.

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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