हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

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बुधवार, 15 सितंबर 2010

मानवी महामाया

आँखों देखी बातें सारी , नहीं हकीकत होतीं है ।
मानव की माया देख अचंभित , ईश्वर की माया होती है ।

व्यूह बनाकर अपने से , मानव स्वयं को फँसाता है ।
निज स्वार्थ सिद्ध करने को , जाने क्या क्या ढोंग रचाता है ।

कातर स्वर में मदत मांगता , मन में मंद मंद मुस्काता है ।
कांटे में ज्यों चारा लगाकर , कोई मछली फँसाता है ।

फिर एक समय वो आता है , जब कोई ढाल बन जाता है ।
चक्रव्यूह में उसे फँसाकर , स्वयं बाहर निकल वो जाता है ।

अपनी माया के बल पर , मानव ईश्वर को छल लाता है ।
दृष्टि-भ्रम का जाल बिछा , वह बलि का बकरा सजाता है ।

स्वयं करता नहीं वो वफ़ा मगर , औरों से आस लगता है ।
आँखों देखी बातों औरों की , वो दृष्टि-भ्रम बतलाता है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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