तन अगर थकने लगे , मन तेरा निढाल हो ।
ज्ञात और अज्ञात के , भेद का ना ज्ञान हो ।
बोझिल जब लगने लगे , उपदेश धर्म गुरुओं के ।
मन में जब चुभने लगे , दंश जटिल सिद्धांत के ।
ढोल से कर्कश लगे , आदर्श जब संसार के ।
तुझको व्यथित करने लगे , भाषा अभिमान के ।
छोड़ कर संसार को , एकांत में जाओ कहीं ।
प्रकृति की गोद में , आश्रय तुम पाओ कहीं ।
भूल जाना बज रही , मंदिरों की घंटियों को ।
ध्यान ना देना किसी , अजान देती मस्जिदों को ।
राह वो चुनना जिधर , कोई मिले ना धर्म गुरु ।
पाखंड का करना नहीं , व्यापार तुम कोई शुरू ।
बस कहीं एकांत में , तुम सिर टिका देना धरा पर ।
फेंक कर सब शास्त्र को , निढाल होना तुम वहां पर ।
चीखना तुम जोर से , मन को लगे जो डर कहीं ।
जाकर लिपट जाना किसी , पेंड़ से यदि हो वहीँ ।
मिट रहे अभिमान को , बस देखते रहना वहीँ ।
फिर छोड़ देना मन को भी , तुम अकेले में कहीं ।
याद मत रखना वहां , तुम शक्ति अपने बाजुओं की ।
व्यर्थ मत गढ़ना वहां , कोई बात तुम तर्क की ।
कर सके तुम यदि इसे , अज्ञात को तुम पाओगे ।
अज्ञात के साथ में , समझ ज्ञात को भी जाओगे ।
फिर ना कोई धर्म होगा , ना कोई आडम्बर ही ।
फिर ना कोई खंड होगा , ना कोई पाखंड ही ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
'तन अगर बोझिल लगे और मन निढाल हो'ऐसा ही कुछ लग रहा था विवेक भाई, सो मैं आपके ब्लॉग पर आ गया। बहुत ही सशक्त शब्द होते हैं आपके, शैली धाराप्रवाह। वाह भई वाह!
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