हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शनिवार, 4 सितंबर 2010

दैहिक दैविक

बल से मिटा सकते हैं हम , बल से झुंका सकते है हम ।
बल से किसी भी कार्य को , जबरन करा सकते है हम ।
बल नहीं तो कुछ नहीं , ना शांति होगी ना प्रगति ।
ना विजय का हर्ष होगा , ना सही होगी नियत ।
पर क्या यही ध्रुव सत्य है , बल ही परम तत्व है ?
बल से कहाँ जुड़ता कोई , होता हमें बस भ्रम है ।
बल बना सकता है दास , मनुष्य के शारीर को ।
और कुछ हद तक कहें , मनुष्य के मष्तिष्क को ।
पर समर्पण की समग्रता , भावनाओं से है आती ।
कार्य  के परिणाम को , वो शिखर पर है पहुँचाती ।
हर लक्ष्य को अपना बनाकर , संघर्ष ह्रदय से करवाती ।
निज-सामर्थ का अतिक्रमण कर , समूह बल वो बन जाती ।।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
 

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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