जीने की कला हम सीख रहे , जीने की चाहत खोकर भी ।मरने की कला हम भूल गए , मरने की चाहत रखकर भी ।वो दौर कठिन था फिर भी हम , औरों को सिखाया करते थे ।ये दौर बहुत ही नाजुक है , अब स्वयं को जानना सीख रहे ।वो उम्र और थी यारों जब , परवानों सा हम जीते थे ।ये उम्र अलग है यारों अब , इंसानों सा हम रहते है ।
देखो कैसे समय निरंतर , धीमे धीमे बदल रहा है ।सभी पुरातन चीजें हमसे , चुपके चुपके छीन रहा है ।भले दिया है उसने हमको , कुछ एक नये उपहार अभी ।कुछ नूतन रिश्तों के पौधे , कुछ कंधों पर नये भार अभी ।लेकिन भुला नहीं हम पाए , उस स्वर्णिम मधुर संसार को ।जीवन मरण के बंधन में फिर , हम सीख रहे व्यापार को ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
bahut pyaari rachna... lat line are just awesome...
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