वक्त की है ये नसीहत , छोड़ दे अभिमान को ।
मत कुचलना तू कभी , किसी गैर के मान को ।
आज तेरा राज है , किसने देखा कल यहाँ ।
एक पल की देर में , है बदलता सब जहाँ ।
दोस्त कब दुश्मन बने , कब बिखर जाये समां ।
सर छुपाने के लिए , जाना पड़े तुझको कहाँ ।
झोपड़े जिनके जलाता , सेंकने को आग तू ।क्या पता उनके यहाँ , हो शरण को मोहताज तू ।याद रख इन्सान तू , ये वक्त ही है शहंशाह ।उसकी मर्जी से ही बनते , और बिगड़ते सब निशां ।जो भी कर तू सोंच कर , पछताना ना तुझको पड़े ।सोंच कर बीता हुआ , शर्माना ना तुझको पड़े ।
एक सा बस रह सदा , इंसानियत ना भूल तू ।वक्त की सुनकर नसीहत , सँभल जा इन्सान तू ।खो गया अवसर अगर , फिर ना वो मिल पायेगा ।अभिमान की भरपाई तू , ना अंत तक कर पायेगा ।गर्व में बोले हुए , हर शब्द पर पछतायेगा ।मुह छुपकर तू जहाँ से , किस तरह रह पायेगा ।
चाहते हैं हम सभी , ना हालात बिगड़े कभी ।
वक्त ने इन्सान से , कब वादा किया कोई कभी ।
वक्त ने इन्सान से , कब वादा किया कोई कभी ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
'नसीहत' आजकल की पीढ़ी के युवाओं को नसीहत के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई। आपकी रचनाओं से ही लगता है बिल्कुल विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी हैं आप।
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जिंदगी के सरलतम फलसफे , बेहद ख़ूबसूरती से समझाए आपने....आभार
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