हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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सोमवार, 20 सितंबर 2010

आँधियों का दौर है

आँधियों का दौर है , सर झुकाकर चलने दो ।
आँधियों के बाद भी , सर उठाकर चलना है ।
जग भले कहे इसे कायरता , कौटिल्य की ये कूटनीति ।
इसके बिना सफल कब , होती कोई युद्ध नीति ।

हर सर की होती मर्यादा , हर दर पे झुकना ठीक नहीं ।
लेकिन बिना सबब के कोई , शीश गवाँना उचित नहीं ।
वो वृक्ष उखड जाते है जो , हर छण तन कर रहते है ।
जीवित रहते वृक्ष वही जो , कुछ पल नम्र भी रहते हैं ।

है आज अगर सत्ता उनकी , मदमस्त उन्हें तुम और करो ।
तुम शीश झुकाकर भले चलो , मठ्ठे से जड़े उनकी भरो ।
फिर जब होगा अंतिम फैसला , सीने पर तीर चलाना तुम ।
विस्मित करके अरि-दल को , फिर विजयी शीश उठाना तुम ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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