आँधियों के बाद भी , सर उठाकर चलना है ।
जग भले कहे इसे कायरता , कौटिल्य की ये कूटनीति ।
इसके बिना सफल कब , होती कोई युद्ध नीति ।
हर सर की होती मर्यादा , हर दर पे झुकना ठीक नहीं ।
लेकिन बिना सबब के कोई , शीश गवाँना उचित नहीं ।
वो वृक्ष उखड जाते है जो , हर छण तन कर रहते है ।
जीवित रहते वृक्ष वही जो , कुछ पल नम्र भी रहते हैं ।
है आज अगर सत्ता उनकी , मदमस्त उन्हें तुम और करो ।
तुम शीश झुकाकर भले चलो , मठ्ठे से जड़े उनकी भरो ।
फिर जब होगा अंतिम फैसला , सीने पर तीर चलाना तुम ।
विस्मित करके अरि-दल को , फिर विजयी शीश उठाना तुम ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
एक टिप्पणी भेजें