बचपन की कहानियों में , और जंतु बिज्ञान की किताबों में ।
इस बात का जिक्र होता है , आदमी का जानवरों से पुराना रिश्ता है ।
थे आदम के पुरखे जो , चार पैरों पर चलते थे ।
नोंच कर वो औरों को , अपना पेट भरते थे ।
घूमते थे नग्न वो , था नहीं रिश्ता कोई ।
मनुष्य को मनुष्य ही , था नहीं जँचता कोई ।
सदियों पहले की बात है , जानवर बन गया आदमी ।
सदियों पहले की बात है , जानवर बन गया आदमी ।
दो पैरों पर चलने लगा , शिकार हाथ से करने लगा ।
जन्म शर्म को उसने दिया , वस्त्रों का अविष्कार किया ।
अपना अधिकार जताने को , परिवार का उसने रूप दिया ।
पूंछ छिपाकर अन्दर की , दांत घटाकर छोटा किया ।
मगर मिटा ना पाया वो , औरों के प्रति अपनी घृणा ।
गुजरी हुयी सदियों में , उसने बहुत कुछ सीखा है ।
कैसे सजाकर प्लेट में , माँस को चिचोड़ा जाता है ।
कैसे दिन-दहाड़े राह में , अस्मत को लूटा जाता है ।
कैसे पहनकर वस्त्रो को , नग्न दिखा जाता है ।
कैसे झुका कर घुटनों पर , औरों को जीता जाता है ।
कैसे आधुनिक रूपों में , घृणा छिपाया जाता है ।
अपनी घृणा छिपाने को , उसने तरकीबे खोजी बहुत ।
कपडे सुन्दर बनवाये , आभूषण तन पर सजवाये ।
बाल सवाँरे उसने अपने , धर्म चलाये उसने कितने ।
मानवता-भाईचारे का , स्वांग रचाया सबसे मिल कर ।
लेकिन अपने अंदर की , घृणा मिटा ना पाया वो ।
घृणा की आग में तपकर , पत्थर दिल बन पाया वो ।
1 टिप्पणी:
अच्छी पंक्तिया है .....
अच्छा लिखा है ....
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( बाढ़ में याद आये गणेश, अल्लाह और ईशु ....)
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