अफ़सोस मगर उसमे कितना , स्वयं अपनाया मानव ने ।
जितना सहज है औरों को , पाठ पढ़ाना आदर्शों का ।
कठिन है उतना ही उस पर , स्वयं चलना मानव का ।
है औरों के लिए अलग , और अपने लिए अलग पैमाना ।
यही संस्कृति कलयुग की, इस पर ही चलता आज जमाना । २१/०४/2005
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"अनंत" कलयुग में है जन्मे आप, फिर मानव होने का अभिशाप ।
मैंने देखा पाठ पढ़ाते , औरों को सुन्दर हैं आप ।
पर चलिए सत्य जानते हैं , ये है मीठा सुखद एहसास ।
लेकिन क्या कभी सोंचा है , क्यों भटक राह से जाते आप । २५/०३/2007
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© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
सुन्दर प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति....
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