हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://www.vmanant.com/?m=1

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

आदर्श

जीवन के आदर्शों की , है लिखी पोथियाँ मानव ने ।
अफ़सोस मगर उसमे कितना , स्वयं अपनाया मानव ने ।
जितना सहज है औरों को , पाठ पढ़ाना आदर्शों का ।
कठिन है उतना ही उस पर , स्वयं चलना मानव का ।
है औरों के लिए अलग , और अपने लिए अलग पैमाना ।
यही संस्कृति कलयुग की, इस पर ही चलता आज जमाना । २१/०४/2005

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"अनंत" कलयुग में है जन्मे आप, फिर मानव होने का अभिशाप ।
मैंने देखा पाठ पढ़ाते , औरों को सुन्दर हैं आप ।
पर चलिए सत्य जानते हैं , ये है मीठा सुखद एहसास ।
लेकिन क्या कभी सोंचा है , क्यों भटक राह से जाते आप । २५/०३/2007
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© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

सुन्दर प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति....

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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