अच्छे और बुरे का वो भेद मिटा देती है ।
आदमी को आदमी का शिकार बना देती है ,
औरों की लाशों पर महल बना देती है ।
हवस में सोंचने की बात कहाँ होती है ,हवस को चाहिए हर समय कोई शिकार ,
अपने पराये की पहचान कहाँ होती है ।
इसमे तो जितना डूबो वो भी कम है ,
टूटते रिश्तों का होता कहाँ गम है ।हवस शैतान की भूँख को जगती है ,हवस तो हवस है साध्य चाहे जो हो ,
मन में हैवानियत का भाव वो उठती है ।
जुर्म और जरायम का बाजार वो चलती है ,
इन्सान की जरूरते अनंत तक बढ़ाती है ।
व्यक्ति से वस्तु तक साधन चाहे जो हो ।
भले वो पेट की हो लाचार हवस ,
या फिर जिस्म की रूपसी हवस हो ।
खेल कर जिससे हो सके वो फरार ।
रिश्तों और भावना की उसे है फ़िक्र कब ,
हर तरह की भूँख से उसका है करार ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
3 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही परिभाषित किया..हवस में इन्सान इन्सान नहीं रह जाता.
बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....
बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....
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