हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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मंगलवार, 21 सितंबर 2010

हवस तो हवस है

हवस इन्सान को शैतान बना देती है ,
अच्छे और बुरे का वो भेद मिटा देती है ।
आदमी को आदमी का शिकार बना देती है ,
औरों की लाशों पर महल बना देती है ।
हवस में सोंचने की बात कहाँ होती है ,
अपने पराये की पहचान कहाँ होती है ।
इसमे तो जितना डूबो वो भी कम है ,
टूटते रिश्तों का होता कहाँ गम है ।
हवस शैतान की भूँख को जगती है ,
मन में हैवानियत का भाव वो उठती है ।
जुर्म और जरायम का बाजार वो चलती है ,
इन्सान की जरूरते अनंत तक बढ़ाती है ।
हवस तो हवस है साध्य चाहे जो हो ,
व्यक्ति से वस्तु तक साधन चाहे जो हो ।
भले वो पेट की हो लाचार हवस ,
या फिर जिस्म की रूपसी हवस हो ।
हवस को चाहिए हर समय कोई शिकार ,
खेल कर जिससे हो सके वो फरार ।
रिश्तों और भावना की उसे है फ़िक्र कब ,
हर तरह की भूँख से  उसका है करार ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बिल्कुल सही परिभाषित किया..हवस में इन्सान इन्सान नहीं रह जाता.

Kailash C Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....

Kailash C Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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