क्षमा करो हे मातु सरस्वती , जिह्वा का मान ना रख पाया ।
करके प्रयोग कटु शब्दों का , अपमान तेरा करता आया ।
अपने लिखे हुए शब्दों से , भला ना कोई कर पाया ।
उलटे औरों का अहित सदा , अब तक मै करता आया ।
क्षमा करो हे मातु भगवती , ना सज्जनता अपना पाया ।
कुटिल कलुष प्राणी बनकर , दुर्जनता ही करता आया ।
दया धर्म का किया दिखावा , जन कल्याण ना कोई कर पाया ।
भुला सभी की आकांक्षा , निज स्वार्थ सिद्ध करता आया ।
क्षमा करो हे मातु गायत्री , मै तेज ना धारण कर पाया ।उलटे अपने अंतरतम से , अँधियारा घना करता आया ।अगणित अवसर तुमने दिया , पहचान ना उसको मै पाया ।हठ और अहम् के दोषों से , घनीभूत स्वयं को करता आया ।
क्षमा करो हे मातु धारणी , मानव नहीं मै बन पाया ।
राक्षस और निशाचर सा , मै जीवन अब तक जीता आया ।
विद्दया तप ना दान शील , ना ज्ञान धर्म अपना पाया ।
तेरे ऊपर बनकर भार , पशु सा विचरण करता आया ।
क्षमा करो हे मातु जननी , सुपुत्र नहीं मै बन पाया ।
तेरी सेवा कर सका ना मै , दूर ही तुझसे रहता आया ।
जन्म से लेकर अब तक मै , सदा ममता ही तुझसे पाया ।
पर कर्ज चुकाना मुझे दूध का , ये याद मुझे ना रह पाया ।
क्षमा करो हे मातु सभी , समझ देर से मै पाया ।
क्षमा मांगने तेरे आगे , मै हाथ जोड़ कर अब आया ।
कर सको क्षमा मुझ अधम को जो , समझूँगा वरदान प्रगति का मै पाया ।
सदकर्मो से ना डिगूं कभी , यही आशीष माँगने मै आया ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
3 टिप्पणियां:
मन मॆं उतर गई रचना...
मन मॆं उतर गई रचना...
आपकी लेखनी से पाठक के मन की वाणी निकलती । बहुत ही सुंदर रचना है।
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