प्रथम अध्याय
हे मूर्ख दीन दुखी प्राणियों ! जैसा कि तुम जानते हो पर मानते नहीं हो यह संसार अजर अमर अविनाशी नहीं है , यहाँ काल चक्र का पहिया निरंतर घूमता रहता है । ना यह संसार पहले था , ना फिर आगे होगा, यह तो मात्र क्षणिक युगों के लिए निर्मित हुआ है और फिर नष्ट हो जायेगा ।
तुम जिसे सूर्य कहते हो वैसे ना जाने कितने ख़रब सूर्य आज भी तुम्हारे सामने चमक रहें है और ना जाने कितने प्रतिपल नष्ट होकर पुन: जन्म ले रहें है जिनमे से कुछ को तुम तारों के रूप में देखते हो और कुछ को देखने की अभी तुम्हारी सामर्थ नहीं विकसित हो पायी है । और तुम जिसे धरती कहते हो ऐसी कई संख-पद्म धरती अपने चन्द्रमा आदि के साथ इन सूर्यो के चारो तरफ अखिल ब्रम्हाण्ड में भरी पड़ी हैं और उसमे तुम्हारी भाषा के अनुसार ना जाने कितने तरह के सीधे , गोल मटोल , चौकोर , टेड़े-मेड़े,छोटे-बड़े प्राणियों का जीवन बिखरा पड़ा है ।
तुम्हारी तरह ही प्रत्येक धरती का हर प्राणी अपने भगवान को सबसे बड़ा और अपने आप को ही सर्वश्रेष्ट प्राणी मानता है और अपनी जाति को ही अपने भगवान की सबसे सुंदर रचना मानता है । मगर अफ़सोस आज तक किसी भी संसार का कोई भी धर्म अथवा विज्ञानं उस अथाह गहराई को नहीं पा सका है जहाँ से यह सब अरबो-खरबों संसार प्रतिपल जन्म ले रहें है और नष्ट होकर पुन: अनंत अंधकार में समा रहें है ।
- अथ प्रथमो अध्याय: समापनं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
बहुत आभार,
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