जाम थे ओंठो पे जिनके , वो मै ना था ।
दूर कोने में अकेला , मै खड़ा था ।
शर्बते दीदार से , समझिये पाला पड़ा था ।"
पहली चार पंक्तिया ओशों की अब कुछ आगे अपनी बात ....
लेकर मै आया बोतल होश के शराब की , जितना चाहो पी लो आकर बेहिसाब का ।
बांटता हूँ निमंत्रण मै सारे समाज को , लक्ष्य़ है नींद में चलते हुए समाज का ।
बुलाया है मैंने सभी योगीराज को , संग दर दर भटकते सन्यासी समाज को ।
उन्हें भी जो पिए हैं नशीले पदार्थ को , नशेड़ी, गंजेड़ी और भंगेड़ी समाज को ।
आयेंगे वो भी जो हैं पतित समाज के , भोगते है जो यहाँ औरों के भाग को ।
निमंत्रित यहाँ सारा सज्जन समाज भी , जो मन में दबाये कुंठा और राज को ।
नर ही नहीं नारी जगत भी बुलाया है , माँ, बहन, बेटी सब उसमें समाया है ।
यार,दोस्त,रिश्ते-नाते को भी निमंत्रण हैं, आयोजन स्थल पर आज अभिमन्त्रण है ।
एक ही शराब की बोतल है पास में , जितना पिलाओ नहीं चुकती कभी प्यास से ।सोमरस भरा है इसमे ऋषियों के पास से , सुरा भी मिली है इसमें असुर समाज से ।मयकदा , जाम और साकी भी आज हैं , आवो और चख लो तुम भी थोड़ा पास से ।नया जीवन ये देती अमरता के साथ ही , मृत्यु को मैं बाँटता नये जीवन के आस से ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
ये आखिर है क्या? ये कह कौन रहा है? क्या वह अहं है?
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