यह कविता प्रसिद्ध कवि "गोपाल सिंह नेपाली" ने
"चीन के युद्ध में हमारी करारी हार" के बाद
"पंडित नेहरु की कायरता पूर्ण नीतियों से क्षुब्ध होकर" लिखी थी
पर इस कविता को पढ़कर लगता है जैसे यह कविता मनमोहन सरकार के लिए लिखी गयी हो....
कितनी सटीक पंक्तियाँ आज भी कितनी प्रासंगिक....................
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तरवार से ।
यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की ।
फिर कमी रही कब भारत में सभ्यता, शांति, सदभावों की ।
पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, गोली चलती उस पार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
तुम उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो ।
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो ।
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़ ।
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़ की पतवार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर ।
वह प्राप्ति सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर ।
चुप रहने को तो हम इतना चुप रहें कि मरघट शर्माए ।
बंदूकों से छूटी गोली कैसे चूमोगे प्यार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई ।
जीवित है तो फिर कर लेंगे कल्पना नई, कामना नई ।
घर की है बात, यहाँ 'बोतल' पीछे भी पकड़ी जाएगी ।
पहले चलकर के सीमा पर सर झुकवा लो संसार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
हम लड़ें नहीं प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें ।
होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें ।
वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे, मिले, मृदु बात करे ।
बंदूक चलाने वाला माने बमबारी की मार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़ ।
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़ ।
इसलिए वेद, गीता, कुरआन, दुनिया ने लिखे स्याही से ।
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।
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