अब चलते चलते पाँव थके , तलुओ में पड़ गए छाले है ।
हम इतनी दूर निकल आये , अब नहीं पास घर वाले है ।
सोंचा था यूँ चलते चलते , पहचान स्वयं को जायेंगे ।
चाह रहा क्या मन बौरा , यह जान स्वयं हम जायेंगे ।
पर व्यर्थ हुआ आयोजन सब , मन अब भी लगता अंजाना है ।
यह जन्म गँवाकर भी देखो , ना स्वयं को अब तक पहचाना है।
हम इतनी दूर निकल आये , अब नहीं पास घर वाले है ।
सोंचा था यूँ चलते चलते , पहचान स्वयं को जायेंगे ।
चाह रहा क्या मन बौरा , यह जान स्वयं हम जायेंगे ।
पर व्यर्थ हुआ आयोजन सब , मन अब भी लगता अंजाना है ।
यह जन्म गँवाकर भी देखो , ना स्वयं को अब तक पहचाना है।
हाँ ठीक कहा था तुमने 'अनंत' ....
सागर में ऊपर ऊपर , कब मोती किसी ने है पाया ।
शीश गँवाए भला कहाँ , ईश्वर में है कोई समाया ।
मन का क्या ? मन बौरा , कुछ दिल की भी तुम सुन लो ।
मत अपनी ही तुम करो सदा , कुछ औरो की भी सुन लो ।
आ लौट चले हम फिर वापस , घर अपने ओ परदेशी ।
कब तक यूँ ही भटकोगे , अब तो बन जाओ स्वदेशी ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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