जानवर तक ठीक था , पर क्यों बनाया आदमी को ।
आदमी तक ठीक था , क्यों दिया उसे बुद्धि इतनी ।
बुद्धि तक भी ठीक था , क्यों किया उसे शुद्ध इतनी ।
छोड़ कर इंसानियत , अब वो देवता बनने चला ।
अपनी हकीकत को भुलाकर , स्वांग है रचने लगा ।
जन्म देने वो लगा , विज्ञान से आदमीं ।
नष्ट करने वो लगा , प्रकृति की सादगी ।
है उतारू तोड़ने को , सारे जहाँ का संतुलन ।
जाने क्या है सोंचता , पढ़ नहीं पाता मै मन ।
अब तो मुश्किल होती है , पहचानने में श्रृष्टि अपनी ।
सोंच कर पछता रहा हूँ , जो हुयी थी भूल अपनी ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
bahut sundar aur vicharniya abhivyakti....
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