ना चाह मुझे मै पा जाऊँ , संचित थाती गैरों का ।
नहीं देखता किसी पराई , वस्तु का मै कोई सपना ।
खुश हूँ मै उस सब से , जो कुछ जग में है अपना ।
इस जग में ईश्वर ने जब , सबको अलग बनाया है ।
उनके कर्मो पर आधारित , भाग्य अलग बनाया है ।
क्यों कर मन में लोभ जगे , देख परायी चीजों को ।
इर्ष्या से क्यों कर मै जलूँ , भाग्य देखकर औरों का ।
बीत गया जो भूत काल है , बदल नहीं सकते उसको ।
आना है जो आगे भविष्य , अनिश्चित कहते है उसको ।
वर्तमान पर हक़ अपना है , वर्तमान को ही जीना है ।
आगा-पीछा सोंच व्यर्थ में , समय नष्ट नहीं करना है ।
बनी रहे सदबुद्धि मेरी , हे ईश्वर मुझ पर कृपा करो ।
जो मेरा है मुझको दो , बस इतना मुझ पर कृपा करो ।
सहेज सकूँ अपनी चीजे , बस इतना मुझको सामर्थ्य दो ।
रहे कृपा मुझ पर तेरी , बस इतना ही मुझको वर दो ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
5 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया रचना ... बधाई
well written and executed...
वाह जी आप सुंदर कविताएं लिखते हैं.
Bahut sundar vichar...vastav main santusti hi jeevan main khushiyon ka aadhar hai...
http://www.sharmakailashc.blogspot.com/
सहेज सकूँ अपनी चीजें, बस इतना मुझको सामर्थ्य दो।
रहे कृपा मुझ पर तेरी, बस इतना ही मुझको वर दो।
हर बार की तरह बहुत ही बढ़िया कविता विवेक भाई।
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