होती कठोर सच की धरती , थक जाते चलने से लोग ।
नर्म बिछावन होता झूंठ , चलते हैं उस पर सब लोग ।
सच की राह में कंकर पत्थर , और कटीली झाड़ी हैं ।
पगडण्डी है पतली जिसपर , चलते पैदल नर नारी हैं ।
झूंठ की राह है राजमार्ग , उस पर चलती कई सवारी ।
हर पल मेला रहता उसपर , चलते हैं शासक व्यापारी ।
संबल पाता निर्बल भी , झूंठ की राह पर चलने से ।दुर्जन का नहीं होता भय , दुर्जन के संग चलने से ।सच की राह अँधेरी है , निज का प्रकाश ले चलते लोग ।झूंठ की राह सरल इतनी , अंधियारे में चल लेते लोग ।
सच की राह में दुर्जन भी , घात लगाये रहते हैं ।
झूंठ की राह में सज्जन भी , अधिकार जमाये रहते है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें