हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अंतर

होती कठोर सच की धरती , थक जाते चलने से लोग ।
नर्म बिछावन होता  झूंठ , चलते हैं उस पर सब लोग ।
सच की राह में कंकर पत्थर , और कटीली झाड़ी हैं ।
पगडण्डी है पतली जिसपर , चलते पैदल नर नारी हैं ।
झूंठ की राह है राजमार्ग , उस पर चलती कई सवारी ।
हर पल मेला रहता उसपर , चलते हैं शासक व्यापारी ।
संबल पाता निर्बल भी , झूंठ की राह पर चलने से ।
दुर्जन का नहीं होता भय , दुर्जन के संग चलने से ।
सच की राह अँधेरी है , निज का प्रकाश ले चलते लोग ।
झूंठ की राह सरल इतनी , अंधियारे में चल लेते लोग ।
सच की राह में दुर्जन भी , घात लगाये रहते हैं ।
झूंठ की राह में सज्जन भी , अधिकार जमाये रहते है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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