माँगना क्या उस प्रभु से , जो जगत को है चलाता ।
तीनो लोकों-कालों का , स्वामी है अंतर्यामी विधाता ।
जानता है स्वयं ही वो , क्या चाहिए जग में किसे ।
क्या भाग्य है किसका यहाँ , कब क्या किसे देना यहाँ ।
इन्सान हैं कठपुतलियाँ , जिनको चलाता है बिधाता ।
जब जैसा उसे भाता यहाँ , वैसा ही सबको नचाता ।
मै भी हूँ कठपुतली ही , कोई और नहीं अस्तित्व है ।
ना मेरा निज कर्म है , ना कोई निज धर्म है ।
जो भी है जग में मेरा , सब का कारक है विधाता ।
जो भी होगा भविष्य में , उसका भी निर्णायक विधाता ।
फिर क्या माँगू मै अभी , मुझको चलाता है विधाता ।
चाहता क्या मन मेरा , जानता है सब विधाता ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
nice
सब जानता है विधाता! उससे ऊपर कोई नहीं है। जिसे हम भाग्य कहें लेकिन वह जिसको जो भी देता है उसी के अनुरूप देता है। बहुत अच्छे शब्दों में ढाला है।
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