क्यों चाह रहे उस मंजिल को , जहाँ रूह नहीं बच पानी है ।
क्यों खोजो रहे वह प्यार पुन: , जो छल और कपट का सानी है ।
झूंठे सच्चे वादों में क्यों ,
फिर मन तेरा ललचाता है ?
वो है एक मृग मरीचका ,
जो मन तेरा भटकता है..!
यदि मिल ही जाये फिर से , छल और कपट में लिपटा प्यार ।
क्या खुश रह पावोगे जीवन भर , पूँछो अपने दिल से एक बार ।
मेरा तो कर्त्तव्य यही .....,
मै समझाऊंगा बारम्बार ।
जब जब व्याकुल होगे तुम ,
मै तुम्हे संभालूँगा हर बार ।
सच और झूँठ के अंतर को , मै तुम्हे बताऊंगा हर बार ।
वचन दिया है मैने , सत्य का साथ निभाऊंगा हर बार ।
फिर चाहे मुझको अपनो का ,
अर्जुन सा करना पड़े विरोध ।
दूर करूँगा हर बाधा को ,
जो बनना चाहेगा अवरोध ।
बस मुझको तुम दो इतना वचन , नहीं जीवन में निराशा लाओगे ।
तोडा है जिसने दिल तेरा , भुला उसे तुम जीवन में आगे जाओगे ।
4 टिप्पणियां:
बेहतरीन कविता, मगर जिसपे बीतता है वो ही समझ पता है..."प्यार से भी जरूरी कई काम हैं प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लीये" जो प्यार न समजे उसका साथ छोड़ देना ही उचित है.
Sahi kaha hi Mitra
Ja ke paanv na fati bevayi, vo kya jane peer parayi.
Bahot hi khoobsurti se aapne zindgi ko sbdo me sameta hai,, _ _ _ _ _ _ _ _ _ _awsum
Dhanyawad juhi ji..
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