हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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रविवार, 4 मार्च 2012

घुमा फिराकर..


पहले लोगो को अक्सर गुनगुनाते सुनता था....
"तू जो नहीं तो कुछ भी नहीं , ये माना महफिल जवाँ है हँसी है....।"
और आजकल सुनने को मिलता है....
"आप नहीं कोई और सही...कोई और नहीं कोई और सही....।"

अफसोस.... पूरब और पश्चिम का अंतर समाप्त होता जा रहा है....!

थोडा घुमा फिराकर कहूँ तो...
"मेरा जीवन कोरा कागज...." से 
"जिंदगी प्यार का गीत है...." महसूस करके 
"ओंठो से छू लो तुम..." की तमन्ना में 
"तुझको देखा तो ये जाना सनम..." के बाद 

"ये मेरा दिल प्यार का दीवाना..." और 
"आ जाने जाना..." के चक्कर में 
"काँटा लगा, उई रब्बा...." महसूस करके 
"दिल में है मेरे दर्दे डिस्को..." गाते हुए
"लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए..." से 
"बीड़ी जलईले जिगर से पिया..." के हालात से गुजरते हुए
"बाबू जी जरा धीरे चलो..." कहने के वावजूद जब 

"शीला की जवानी..." ने 
"मै आयी हूँ यूपी. बिहार लूटने..." के हालात बनाये और उसके आगे जब
"मुन्नी बदनाम हुयी..." तब तक भारत इतना बदल गया कि पुरानी प्रेमिका जिसके लिए..
"महबूबा ओ महबूबा..." की रट लगायी जाती थी वो नादान जहाँ एक तरफ...
"पिया तू अब तो आ जा..." की धुन पर नाहक ही टेसुए बहते हुए 
"तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे..." की रट लगाये जा रही है वही दूसरी तरफ 
"चिकनी चमेली..." खुलेआम शराब की बोतल लटकाकर जिल्लेइलाही की परवाह किये बिना सलीम के साथ
"अनारकली डिस्को चली..." बताने लगी है...।

अब क्या कहूँ , क्या ना कहूँ.....दिमाग कहने से रोंकता है पर दिल कहने से बाज नहीं आता....!
अपने तो हालात ऐसे है कि......"काजी बेचैन क्यों..? शहर के अंदेशे में...।"

वैसे 
मै कह कर भी कुछ कहता नहीं,
फिर बिना कहे सब कह जाता हूँ ।
जो अपने है वो अपने है ही ,
गलत दिखे गैरो को भी लतियाता हूँ ।
जब तक बंद किये हूँ नेत्र,
बुद्धं शरणम मुझको समझो ,
भृकुटी हुयी तिरछी ज्यो ही ,
परशुराम का शिष्य ही समझो ।

तो अनुरोध है श्रीमान.....
शब्दों पर ना जाये मेरे,
बस भावो पर ही ध्यान दे..
अगर कही कोई भूल दिखे ,
तत्काल ही उसे सुधार दे । 

तो वापस चलता हूँ अपने..."अनंत अपार असीम आकाश" में.. 
क्योंकि अब तो मेरी लंका भी मिटटी में मिल गयी है.. जहाँ 
"त्रेता युग" में "दस शीश दशानन रावण हूँ, मै लंकापति लंकेश्वर हूँ" की मेरी गर्जना सुनकर...  
देव,दानव,यक्ष,किन्नर,गन्धर्वो समेत मानवों कि पाप-आत्माए काँप उठती थी।

और इतना तो जान ही गया हूँ कि कलयुग में..."दीवारों से सर टकराने से अपना ही सर फूटता है.....।"
(मूलत: ये पोस्ट फेसबुक पर किसी खास को लक्ष्य करके लिखा गया था)
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

शिखा कौशिक ने कहा…

badhiya kataksh kiya hai aapne .SARTHAK PRASTUTI HETU BADHAI . ye hai mission london olympic

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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