जीवन है माटी का लोंदा , पल पल रूप बदलता है ।
कभी ठोस चट्टान सा , कभी पल में ये बिखरता है ।
कभी ये गीली मिटटी सा , तृप्त स्वयं में रहता है ।
कभी आकाल की मिटटी सा , तकलीफों को सहता है ।
कभी आंधियां इसे उड़ा कर , दूर छोड़ कर आती हैं ।
कभी बाढ़ का पानी इसको , दूर देश ले जाती हैं ।
कभी किसी उपजाऊ मिट्टी , जैसा ये हो जाता है ।
कभी रेत के ढेर के जैसा , बंजर ये हो जाता है ।
अगर मिल गया इसे चतुर , सुघढ़ कुम्हार का हाथ ।
रूप बदल कर वो इसको , सिखलाता जीवन की आश ।
वर्ना किसी धूल के कण सा , मारा मारा फिरता है ।
इधर उधर सब के द्वारे , बस दुत्कारा फिरता है ।
जितना ज्यादा इसे तपाते , उतना ही यह चलता है ।
वर्ना भीगी मिटटी सा , हर ठोकर में यह गिरता है ।
माटी जैसा जीवन इसका , फिर माटी में मिलता है ।
माटी से पैदा होकर ये , माटी का लोंदा रहता है ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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