हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शुक्रवार, 10 जून 2011

हे एकलव्य...

भूल कर तुम लक्ष्य को ,
पशु सा भटकते क्यों यहाँ ।
नित खोखले आदर्श का ,
क्यों स्वांग भरते तुम यहाँ ।
भूल कर रण-भूमि को ,
क्या कर रहे रंग-भूमि में ।
छोड़ कर शैया सुहानी ,
क्यों सो रहे हो भूमि में ।
कर्म को त्याग कर ,
कब चल सका सिद्धांत जग में ।
भाग्य तुम कहते जिसे ,
वो कर्म के होता है बस में ।
खोखले सिद्धांत से ,
मिलता नहीं कुछ भी यहाँ ।
भोजन बिना पेट की ,
है छुधा मिटती कहाँ ।
सीखना तुमको पड़ेगा ,
तोड़ चक्रव्यूह का ।
जानना तुमको पड़ेगा ,
भेद सारे व्यूह का ।
दूसरों के बाहु-बल का ,
तुम भरोसा क्यों करो ।
देख कर अवरोध को ,
तुम क्यों कदम पीछे करो ।
लक्ष्य को पहचान कर ,
दृष्टि अर्जुन सा करो ।
एकलव्य सा सीख कर ,
हर साध्य को अपना करो ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

7 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

संजय भास्‍कर ने कहा…

कुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
इसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रेरक रचना...

Saleem Khan ने कहा…

great article!

Swachchh Sandesh

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत प्रेरक और सिधान्तिक रचना ,आभार

Amit Chandra ने कहा…

ओजपुर्ण रचना। आभार।

Udan Tashtari ने कहा…

उत्तम रचना..बधाई.

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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