सब कुछ है, कुछ भी नहीं , मूरत है प्राण नहीं ।
मानव है इन्सान नहीं , मंदिर है भगवान नहीं ।
चार दीवारे ऊपर छत , लेकिन घर का आभास नहीं ।
मोटे मोटे धर्म ग्रन्थ हैं , जिनमे धर्म का सार नहीं ।
गली गली विद्द्यालय हैं , जहाँ शिक्षा का मान नहीं ।
गुरुजन हैं बहुतेरे मगर , विद्दया का देते दान नहीं ।
अगणित पण्डे और पुरोहित, सही कर्म कांड का ज्ञान नहीं ।
शासन सत्ता सभी यहाँ , पर नीति नियम का ध्यान नहीं ।
अधिकारों के पालन कर्ता, हैं अधिकारी अधिकार नहीं ।
लोकतंत्र का राज यहाँ , पर जनता का सम्मान नहीं ।
न्याय पालिका स्वतंत्र यहाँ , जो करती पूरा न्याय नहीं ।
कलयुग की ये है माया , सब कुछ है पर कुछ भी नहीं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
वाह! ऐसी कवितों से जीने की उर्जा मिलती है.
..आभार.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
@ विवेक मिश्र जी..
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ पर प्रशंसा के लिए शब्द नही.........कमाल का लिखा है आपने
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