छोड़ने को जगत क्यों , हो रहे अधीर हो ।
हाथ खाली है अभी , बनने जा रहे दानबीर हो ।
जो है नही तेरा अभी , कैसे बाँट दोगे और को ।
हाथ में आये बिना , कैसे छोड़ दोगे सार को ।
पहले जानो अर्थ स्वयं , फिर कहो किसी और से ।
छोड़ कर भागो नही , यूँ डर कर किसी और से ।
माना तमस में जी रहे , यह ज्ञात होना चाहिए ।
व्यर्थ में अर्थ का , नही अनर्थ होना चाहिए ।
है उठाना यदि धुआं , तो अंगार होना चाहिए ।
या राख के नीचे दबी , कुछ आग होनी चाहिए ।
और कुछ गीली लकड़ियाँ , जो सुलगती रह सके ।
ना बुझ सके पूरी तरह , ना धधकती रह सके ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
खूबसूरत पंक्तियां हैं, विवेक जी।
शुभकामनायें।
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