बिन हदों की चाहतों को , छोड़ देना चाहिए ।
यदि हदें होंगी नहीं , चाहत दीवानगी कहलाएगी ।
इंसानियत का वो कभी , कर भला ना पायेगी ।
दीवानगी हो प्यार की , या दीवानगी नफ़रत की हो ।
दीवानगी हो दान की , या दीवानगी लालच की हो ।
दीवानगी से आज तक , इंसानियत पनपी नहीं ।
दीवानगी की कोख में , हैवानियत पलती रही ।
बाँटने की बात को , दीवानगी सहती नहीं ।
दूसरों का भी है हक़ , दीवानगी कहती नहीं ।
दीवानगी इन्सान को , जालिम बनाया करती है ।
भूल कर सारी हदें , मंजिलो को पाया करती है ।
वो भुला देती है अंतर , क्या बुरा, अच्छा है क्या ?
याद उसको रहता है , क्या मिला,मिलना है क्या ?
तो छोड़ कर दीवानगी , बस चाहतों तक ही रहो ।
चाहतों की हर हदों के , हद से पहले तुम रुको ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
3 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर विचार को आपने कविता में ढाला है ।
बहुत ही सुन्दर पोस्ट .बधाई !
वाह विवेक भाई, बहुत खूब अंतर किया है आपने चाहत और दीवानगी में। बहुत अच्छे शब्दों में पिरोया है इसे। बधाई!!
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