हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

उलझने

उलझने ये जिंदगी की , ख़त्म नहीं होंगी कभी ।
साथ में जीना हमें , सीखना होगा अभी ।
नाव की कीमत तभी , जब नदी की धार में हो ।
बह रही हो धारा उलटी  , वहीँ खेवैये की बात हो ।
धारा के संग साथ में , बह जाते निर्जीव भी ।
धारा के विपरीत ही , होती जरुरत सामर्थ की ।

हाँ उलझनों के बिना , नहीं जिंदगी का सार है ।
ज्यों कसौटी के बिना , नहीं होता स्वर्ण व्यापार है ।
आग में तपकर सदा , फौलाद है बनता यहाँ ।
संसार से भाग कर , जिंदगी है बदरंग यहाँ ।
तूफान के विपरीत जो , ढाल बनते हैं यहाँ ।
उनके आगे ही सदा , झुंकता है सारा जहाँ ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत ही प्रेरणात्मक अभिव्यक्ति....संघर्ष के बिना जीवन में कुछ प्राप्त नहीं होता...आभार..

बेनामी ने कहा…

उचित है और सत्य भी.. क्योँकि जिँदगी जंग है जिसे जीतकर खुश होना है।

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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