तारो को ढीला रखने से ,
स्वर वीणा के नहीं निकलते हैं ।
ज्यादा कस दो तारो को ,
तो कर्कश स्वर ही निकलते हैं ।
तारो को खींचो उतना ही ,
जिस पर हो स्वर का सामंजस ।
ना बंहके कोई स्वर लहरी ,
ना साज लगे कानो को कर्कश ।
.....to be finished
हैं भांति भांति के लोग यहाँ ,
और जगत भरा विबिधता से ।
ना भूल कर पशु सा समझ उन्हें ,
तुम सबको हांको लाठी से ।
मानव भेद पर आधारित ,
हैं साम-दाम-दण्ड-भेद बने ।
फिर ब्रह्मण-क्षत्रिये वैश्य-शुद्र ,
जैसे जटिल जाति विभेद बने ।
हर मानव की अपनी क्षमतायें ,
हर एक की अलग मनोस्थिति है ।
हर एक की गति और दिशा अलग ,
हर एक का अपना सामंजस है ।
शायद पूरा हुआ २१/१०/२०१०
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
4 टिप्पणियां:
बहुत सही सीख...उतना ही तार खींचो कि स्वर सामंजस्य बना रहे.
jaldi poori kare... intzaar rahega... kyonki jiska aagaaz aisa hai uska anjaam kitna khoobsoorat hoga...
शब्दों के तार खींचने में बहुत सुन्दर सामंजस्य ...
पूजा जी स्वागत है
ये आधा हिस्सा भी मूल रूप पहले ही लिखा था मगर उसे कल पोस्ट नहीं किया था ,
आज मूल रूप से पोस्ट कर दिया तो
शायद पोस्ट पूरा हुआ ...
एक टिप्पणी भेजें