कल शाम एक महफ़िल में , मिल गए पुराने यार मेरे ।
कुछ मझे हुए व्यापारी थे , कुछ थे नेता अब यार मेरे ।
कुछ बने धर्म के वाहक थे , कुछ सत्ता के अधिकारी थे ।
कुछ चौखम्भे के रक्षक थे , कुछ उनमे बहुत जुगाड़ी थे ।
जब छिड़ी बात मर्यादा की , वे सब मिलकर कहने लगे........
जब बात चुभी मेरे सीने में , तब ओंठ मेरे स्वयं बोल उठे......
जीने की कला हम भूल गए , मरने की कला क्या याद करें ।स्वयं भिखारी हैं जग में , फिर त्याग की क्या हम बात करें ।जब बेंच रहे सब अपने को , फिर धर्म का क्यों ना मोल धरें ।जब हाट लगा हर ओर यहाँ , फिर क्यों कर हाथ पे हाथ धरें ।
जब बात चुभी मेरे सीने में , तब ओंठ मेरे स्वयं बोल उठे......
हाँ ठीक कहा ये तुमने भी , तुम स्वयं क्यों सबसे अलग रहो ?
जब बेंच रहे ईमान सभी , फिर क्यों तुम पीछे जग में रहो ?
ये देश धर्म और मानवता , यूँ ही सदियों से बिकते आये हैं ।
तुम जैसे ही जाने कितने , घुन लोग यहाँ भर पाये हैं ।
तुम भी आत्मा बेंच कर देखो , क्या क्या वो सुख पाये हैं......
ये बात अलग है इस जग में , अब भी कुछ पागल रहते हैं ।जो राष्ट्र धर्म और मानवता हित , सर्वस निछावर करते हैं ।देकर प्राणों का उत्सर्ग सदा , वो मृत्यु का मान बढ़ाते हैं ।पल दो पल की खातिर तो , वो जीने की कला बताते है ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
4 टिप्पणियां:
क्या बात है बधाई
सटीक अभिव्यक्ति। बधाई।
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
वर्तमान में हर जगह बढ़ रहे भ्रष्टाचारियों पर सटीक कटाक्ष और देशभक्तों का गुणगान करती आपकी कविता बहुत बढ़िया लगी विवेक भाई। साधुवाद।
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