मानव जीवन नदी का पानी , गुजरे घाट ना ठहरे पानी ।
घाट घाट का रूप निहारे , न बँधे किसी बंधन में पानी ।
माँ की कोख है इसका उदगम , किलकारे बचपन का पानी ।
मदमाती लहरे यौवन की , ना सहे किसी का जोर जवानी ।
एक बार जिस घाट से गुजरे , लौट ना देखे फिर से जवानी।
छाए बुढ़ापा जब तन पर , सिमटे धारा सूखे तब पानी ।
बहे मंद गति से जब पानी , आये याद बीती जिंदगानी ।
यौवन बचपन की बाते सारी , करे याद स्थिर सा पानी ।
चलते चलते आये सागर , हो जाये समाहित सारा पानी ।
जिसके अंश से उदगम होए , मिले अंत में उसी में पानी ।
ना नदी बचे ना धारा बचे , ना उसका कोई किनारा बचे ।
जीव मिले जा ब्रह्म में फिर से , सागर में हो ख़तम कहानी ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
अनुपम भाव संयोजन से सजी सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति....
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