हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

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रविवार, 19 मई 2013

नशा..

( एक दशक पुरानी रचना है ये...पर शायद नही है बदले हालत अभी..)

नशा शराब का होता उतर जाता कब का । 
नशा चढ़ा है मुझ पर मेरी रवानी का । 
                  ये रवानी भी क्या गजब चीज है यारो ?
                  असर शराब का और महक पानी का ।
दूर से लोग कहते है किया है नशा ।
पास आकर कहते है जिया है नशा । 
   तो 
बिना पिये ही चढ़ी हो अगर बोतले ।
पीकर खाली करू मै  क्यों बोतले । 
                  जिनको चढ़ता नहीं है रवानी का नशा ।
                  उनको ही चाहिए अंगूरी महुवे का नशा 
हाँ कदम यदि बहकते दिखे हो तुम्हे ।
इसको कहना मेरी जवानी का नशा ।
                  अब इसके बारे में अधिक क्या कहूँ ।
                  शायद तुमने भी पाया हो इसका मजा ।
    पर 
जिसे चढ़ा हो एक से ज्यादा नशा ।
समझो हो गया वो काकटेल का नशा ।
                  अब छोड़ो ये बाते कहूँगा फिर कभी ।
                  देखो चढ़ने लगा है मुझे नींद का नशा । 
क्या कहा तुम मिलोगे उतरने के बाद ।
तो शायद तुम मिलना दशको के बाद ।

                  तब तक शायद उतर जाये वो नशा ।
                  जिसको कहा था मैंने जवानी का नशा ।
और रहा शेष मेरी रवानी का नशा ।
वो तो उतरेगा केवल मेरे मरने के बाद ।
                  हाँ अगर तुम मिले मुझसे कल की शुबह ।
                  तब तक शायद उतर जाय नींद का नशा ।
और जो बोतल खोली थी तुमने अभी ।
उसका मुझ पर चढ़ा ही कब है नशा ?

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