( एक दशक पुरानी रचना है ये...पर शायद नही है बदले हालत अभी..)
नशा शराब का होता उतर जाता कब का ।
नशा चढ़ा है मुझ पर मेरी रवानी का ।
ये रवानी भी क्या गजब चीज है यारो ?
असर शराब का और महक पानी का ।
दूर से लोग कहते है किया है नशा ।
पास आकर कहते है जिया है नशा ।
तो
बिना पिये ही चढ़ी हो अगर बोतले ।
पीकर खाली करू मै क्यों बोतले ।
जिनको चढ़ता नहीं है रवानी का नशा ।
उनको ही चाहिए अंगूरी महुवे का नशा
हाँ कदम यदि बहकते दिखे हो तुम्हे ।
इसको कहना मेरी जवानी का नशा ।
अब इसके बारे में अधिक क्या कहूँ ।
शायद तुमने भी पाया हो इसका मजा ।
पर
जिसे चढ़ा हो एक से ज्यादा नशा ।
समझो हो गया वो काकटेल का नशा ।
अब छोड़ो ये बाते कहूँगा फिर कभी ।
देखो चढ़ने लगा है मुझे नींद का नशा ।
क्या कहा तुम मिलोगे उतरने के बाद ।
तो शायद तुम मिलना दशको के बाद ।
तब तक शायद उतर जाये वो नशा ।
जिसको कहा था मैंने जवानी का नशा ।
और रहा शेष मेरी रवानी का नशा ।
वो तो उतरेगा केवल मेरे मरने के बाद ।
हाँ अगर तुम मिले मुझसे कल की शुबह ।
तब तक शायद उतर जाय नींद का नशा ।
और जो बोतल खोली थी तुमने अभी ।
उसका मुझ पर चढ़ा ही कब है नशा ?
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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