जब कभी होगी जरूरत , फिर नए विशवास की ।
जिन्दगी को उलझनों के , जाल में हम डाल देंगे ।
उलझनों के जाल से , जब निकल कर आयेंगे ।
एक नए विशवास का , आधार लेकर आयेंगे ।
जब कभी होगी परिक्षा , फिर मेरे विशवास की ।
जिन्दगी खुद ही रचेगी , नीव नए निष्ठाओ की ।
कौन कहता है कि जलता , स्वर्ण भी है आग में ।
वो सदा तपकर निखरता , आग के ही खाक से ।
और अगर उलझने ही , ना घेरे हमारी राहो को ।
तो करे क्यों हम इकट्ठा , इतनी सब निष्ठाओ को ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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