हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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रविवार, 1 सितंबर 2013

मेरा क्या मै तो हूँ मुसाफिर..?

सब उसका है , जग जिसका है ।
जीवन उसकी , मृत्यु भी उसकी ।
सुख भी उसका , दुःख भी उसका ।
धूप भी उसकी , छाँह भी उसकी ।
जल भी उसका , थल भी उसका ।
नगर भी उसका , गाँव भी उसका ।

मेरा क्या मै तो हूँ मुसाफिर , लेकर क्या मै आया था ?
मेरी सारी सुख सुविधा को , उसने ही तो जुटाया था ।
बिना दिए कुछ मूल्य किसी का , सब कुछ उससे पाया था ।
अफसोस उसे ही भुला दिया , जिसने सब कुछ लुटाया था ।
माया ठगनी है ही ऐसी , लोभ मोह में उलझाया था  ।
यहाँ अपना पराया कोई नहीं , सबने बस भरमाया था  ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

यह जग भी क्या है ? मुसिफरखाना है
मुसिफर खाना भी उसका है
latest post नसीहत

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है...

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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