मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती , कौन रहना चाहता है उसके बिना ?
और बिना मह्त्वकांक्षाओं के कहो , मिला है किसी को कहाँ कुछ यहाँ ।
भले हो वो शासक किसी देश का , या हो वो सिपाही किसी भेष का ।
वो करता हो चाहे व्यापार कोई , या हो वो किसी का खरीददार कोई ।
देता भले हो जगत को वो शिक्षा , या लेने वो जाता हो स्वयं ही दीक्षा ।
चाहे लुटाता जगत को धरम हो , या अकेले निभाता अपना करम हो ।
मगर ये तभी तक ख़ुशी हमको देती , जब तक गुलामी नहीं इसकी होती ।
बनता ये जिस दिन हमारा व्यसन है , उसी दिन गुलामी में शवसन है ।
फिर नचाने ये लगता पोरों पे अपनी , चलाने ये लगता राहों पे अपनी ।
जब हम लुटाते हैं आजादी अपनी , तभी हम बुलाते है बर्बादी अपनी ।
अच्छे और बुरे का हम अंतर भुलाते , किसी भी तरह से विजयश्री लाते ।
फिर मिटाते उन्ही को जो कल थे अपने , हमारे लिए जो बुनते थे सपने ।
फिर आता है वो पल हमारे लिए भी , जहाँ हम अपने किये को जिए भी ।
अच्छा है होना मह्त्वकांक्षी यारो , मगर उतना ही जो हित में हमारे ।
तभी हमको मिलती उससे ख़ुशी है , वही सबको देती सच्ची ख़ुशी है ।
उसी से हमारा वा जगत में सभी का , होता है सच में कल्याण थोड़ा ।
वरना भुलाकर हमको हमी से , मह्त्वकांक्षाये ही याद रहती है सारी ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
सही और सटीक अभिव्यक्ति !
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