लो फिर आ गया मौसम , राष्ट्र के लिए नया कुछ कर जाने का ।
पुराने हो चुके भूले-बिसरे , चित्रों को साफ कर फिर लगाने का ।
पुरानी धूल-धूसरित मालाओं को , बदलकर फिर नयी लगाने का ।
खोजकर सिकुड़े-गुमचे पड़े झंडे को , धुलाकर फिर इस्त्री कराने का ।
कटे फटे बदरंग झंडे की जगह , गाँधी आश्रम से एक नया मंगाने का ।
और इस तरह राष्ट्रीयता से सराबोर , राष्ट्र का वही पुराना पर्व मनाने का ।
ये मत पूछो किस कारण से , ये पर्व आज मनाया जाने लगा ।
आजाद हुआ था गुलाम राष्ट्र , या संविधान नया बनाया गया ।
गड-मड हो गए हैं अंतर , परिभाषाये नव जनमानस भूल गया ।
छब्बीस जनवरी पंद्रह अगस्त , बस झंडा-रोहण में बदल गया ।
उठे जागे और तैयार हुए , रो-गाकर पहुँच गए ध्वज-स्थल पर ।
फहराया झंडा गाया जन-गण-मन , आ गए पुन: वापस घर पर ।
जो अंतर है इन दोनों में , वो दूर-दर्शन पर जाकर सिमट गया ।
किसी एक में सज-धज कर , देखा दिल्ली में झांकी निकल गया ।
किसी एक में लाल किले से , देश के मुखिया का भाषण गुजर गया ।
और हमें नाहक क्या लेना-देना , जो इतिहास में पुराना बीत गाया ।
बस आज सबेरे सबको गाना , वही पुराना रटा रटाया भूला तराना ।
जनगणमन अधिनायक जय हे , आओ हमको देश की लाज बचाना ।
जल्दी करो देर हो रही जय है...,
लड्डू तुरंत बंटाओ जय हे...।
कम से कम कुछ घंटों को जय हे.. ,
राष्ट्रीयता मिलकर निभाओ जय हे... ।
राष्ट्रीयता मिलकर निभाओ जय हे... ।
कल फिर करना काम हमें जय हे... ,
आज तो छुट्टी मनाये जय हे.....।
आज तो छुट्टी मनाये जय हे.....।
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