हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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रविवार, 8 अगस्त 2010

वस्तुस्थित

                             [१.]
काल के कराल से , कौन   बच पाया है ?
काल के कराल पर, कौन टिक  पाया है ?
काल के प्रवाह को , कौन रोंक पाया है ?
काल के राह को  ,  कौन छेंक पाया है ?

पर्वतों को काट कर , राह नयी बनती है ।
आंधियों की दिशा ,  काल ही  चुनती  है ।
लक्ष्य भी तूफान का, काल तय करता है । 
काल के कराल से , कौन बच सकता है ।

काल यहाँ जब कभी , है अपनी बदलता दिशा ।
रात हो जाता दिन, और दिन हो जाती निशा ।
मिट गए साम्राज्य वो, जिनकी थी सब दिशा ।
नित सूर्य के तेज को भी, लील लेती है निशा ।
                    [२.]
काल के दुर्ग को , कौन भेद सकता है ?
काल के शीश को, कौन झुका सकता है ?
काल के रोष को , कौन दबा सकता है ?
काल के वेग को , कौन नाप सकता है ?
आदमी तो आदमी , भगवान वो बनता है ।
देवाधिपति का पद भी, काल ही दिलाता है ।
सूर्य-वंसी , चन्द्र-वंसी , सब को नाचता है ।
एक पल में राज देता, एक में मिटाता है ।

काल को छोड़ कर , कौन जीत पाया है ।
काल तो काल है, सब उसी की माया है ।
काल की  कृपा से , चल रही ये काया है ।
काल की छाया से , जीवन मैंने पाया है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया.

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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