मित्रों,
मैंने सुना है उदारीकरण के पहले जब ताकत कुछ लोगों की मुठ्ठियों में कैद थी और लाल-फीताशाही का जमाना था तो वही होता था जो कुछ गिने चुने लोग चाहते थे, फिर उदारीकरण का दौर और "कार्पोरेट कल्चर" का जमाना आया मगर क्या लाल-फीताशाही समाप्त हो गयी ?, हाँ कुछ हद तक मगर केवल उपभोक्ताओं के लिए , मगर उपभोक्ताओं की सेवा में तत्पर बेचारे सेवकों के लिए भी क्या यह सत्य है ? तो सुने .........
केवल मेरी सुनो , ना कुछ अपनी करो ।
मगर क्या करोगे? , है व्यवस्था यही ।
इसे शासन कहो , या कहो मज़बूरी ।
जो कहा मैंने तुमसे, बस वही है नियम ।
मुझसे ऊपर भी चलता , यही है नियम ।
जो कुछ लिखा है, काले अक्षरो में कहीं ।
हकीकत में होता यारों, वो नहीं है कहीं ।
लिखा है नियम सब , दिखावे के लिए ।
जैसे हाथी के दो दांत, सजावट के लिए ।
यूँ ही चलती है व्यवस्था , सदा से यहाँ ।
नींचे से ऊपर कहीं भी , है राहत कहाँ ?
तुम कहो चाहे बनिया की, दुकान इसको ।
या कहो घर की खेती , हो हैरान इसको ।
तुमको करना पड़ेगा , हम जो भी कहे ।
तुमको सहना पड़ेगा , हम जो भी करें ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
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