मन की गांठे है कुछ ऐसी , लगती सुलझी फिर भी उलझी ।
जितना ही इन्हें सुलझाता हूँ , स्वयं और उलझता जाता हूँ ।
कलम उठाया खोली डायरी , सोंचा फिर कुछ लिख ही डालूँ ।
बहुत दिनों से लिखा नहीं , कुछ मन के भावो को लिख डालूँ ।
जो अपना हाल ना लिख पाऊँ , अपनो का हाल ही लिख डालूँ ।
इसी बहाने मन की अपने , कुछ गांठो को ही सुलझा डालूँ ।
यूँ तो मै हूँ सुलझा इतना , कभी उलझन के नजदीक ना जाऊं ।
मगर कभी जो उलझ गया , फ़िर उलझन में ही रम मै जाऊं ।
आदत है उलझन सुलझाना , औरो के फटे में टांग अडाना ।
सुलझाते हुए औरों की उलझन , आ बैल मार मुझे चिल्लाना ।
जब दोष मेरा अपना ही है , क्यों औरो को आरोपित करूं ।
जब मन में गांठे हो उलझी , क्या शब्दों में मै भाव भरूं ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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