मै व्यक्त नहीं कर पाता हूँ , ना शब्दों में लिख पाता हूँ ।
शायद मै समझ ना पाता हूँ , या स्वयं से छिपाता जाता हूँ ।
बेचैन मुझे वो करती है , अस्थिरता मुझमें भरती है ।
मेरे तन-मन में वो हर पल , आग जलाये रखती है ।
भुला जगत की मर्यादा , वो आगे बढ़ने को कहती है ।
जाने कब मुक्ति मिलेगी , मुझको इन व्याकुल भावों से ।
या जाने कब तृप्ति मिलेगी , मुझको इनकी बाँहों से ।जो भी हो पर मेरे लिए , हर पल है अग्नि-परीक्षा ही ।
हर बार उतरना खरा मुझे , है अंतत: मेरी मजबूरी भी ।
शब्द जबाँ तक आते है , फिर ओंठ सिये क्यों रहता हूँ ?
जानबूझ कर सब कुछ मै , अंजान बना क्यों रहता हूँ ?
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
वाह! क्या बात है, बहुत सुन्दर !
बहुत सुन्दर रचना
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