भूल कर सुख चैन को , क्यों रो रही है जिंदगी ?
वासनाएं हैं अलग , पर मूल सबका एक है ।
बाँह में सारा जगत , लेने को हम बेचैन हैं ।
है किसी का स्वप्न वो , सम्राट बन जाये अभी ।
तो किसी का स्वप्न है, जग लूट सब लाये अभी ।
चाहता है मन कभी हो , 'कृष्ण' सा जीवन अभी ।
अपनी मुरली की धुनों पर , रास रचवाये अभी ।
फिर अचानक त्याग की , चाहत पनपती है कभी ।
नाम पर अपने चले , कोई धर्म - संप्रदाय कभी ।
उम्र चाहे जो भी हो , मन ना होता बूढ़ा कभी ।
वासना का खेल यूं ही , रुकता नही जग में कभी ।
राग-रंग का दौर रहे , हर जगह पे अपनी ठौर रहे ।
इन्द्रधनुष के रंगों से , सदा जीवन ये परिपूर्ण रहे ।
ऐसी ही जाने कितनी..? , बातें मन में आती है ।
वासना के सागर में , नित लहरें उठती जातीं है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
3 टिप्पणियां:
सटीक अभिव्यक्ति ...
सटीक रचना !!
अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (9/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
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