जिन्दगी शोलों में तप-तप के निखरती ही गयी ।
जितनी ताराज हुयी, और सँवरती ही गयी ।
तल्खियाँ जैसे फिजाओं में घुली जाती हैं ।
जुल्मते हैं कि उमड़ती ही चली आती हैं ।
आशियाने के करीं बिजलियाँ लहरातीं हैं ।
आग और खून के तूफां भी चले आते है ।
मुह कि खाते हैं,पछड जाते है,जक पाते है ।
जितनी तराज हुई जिंदगी , संवरती ही गयी ।
आग के शोलों में तप तप के निखरती ही गयी ।
आगें जलती ही रहीं , शोले बरसते ही रहे ।।
1 टिप्पणी:
जय ओशो!!
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