सिद्धान्त बनाये पुरखों के , क्रांति हमारी अपनी है ।
आदर्श रचाए पुरखों के , विचलन उससे अपनी है ।
नीति-रीति की सारी बाते , भूली बिसरी है कुछ यादें ।
कैसे वो सब याद करू, जो नहीं है मेरे मन की बातें ।
जब मेरा अपना चेहरा है,
क्यों कोई और मुखौटा मै अपनाऊ ।
अपने नाम के आगे क्यों,
किसी और का मै गुरु- नाम लगाऊ ।
सब दूर के ढोल सुहाने है ,
पर ढोल की पोल क्यों भूल मै जाऊ ।
सच का साथ छोड़ कर मै ,
कहो, आडम्बर से क्यों हाथ मिलाऊ ।
तुम भले कहो अभिमानी मुझे, या मानो तुम अज्ञानी मुझे ।
पर, अपने जीवन आदर्शों से , कभी होती नहीं हैरानी मुझे ।
'तेरा'अनुभव है फल पका हुआ, खोज है कच्चा 'मेरा' फल ।
कुछ नया मुझे भी करने दो, शायद जग माने उसको कल ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
nice
yes...very good. anubhution ka ye apar,agagdh sagar hum tk lane k liye thank u.
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