एक दिन यू ही सोंचा मैंने , क्यों न प्रभु का ध्यान धरे ।
प्रभु में अपना ध्यान लगाकर , क्यों न धर्म का काम करें ।
प्रीति लगाकर प्रभु में अपनी , उसको अपना मीत बनाऊ ।
मीत बनाकर उसको अपना , जग में थोड़ा पुन्य कमाऊ ।
इसी आस को लेकर मन में , पहुँच गया एक जंगल में ।
अपनी चादर वहां बिछाकर , ध्यान धरा मैंने प्रभु में ।
यूँ कुछ पल ही बीता होगा , मुझे बिछाये अपना आसन ।
आया एक पागल दीवाना , और रौंद गया मेरा आसन ।
यह देख मुझे जो आया क्रोध , मैंने उसको धर-रपटाया ।
पकड़ के गर्दन उसकी मै , वापस आसन तक ले आया ।
मैंने पूंछा उसे पटककर , क्यों दिखी नहीं तुझे मेरी चादर ।
या फिर तुझको आता नहीं , करना औरों का आदर ।
सुना जो उसने हँसा जोर से , फिर बोला वह मुझे रोंक कर ।
मै भी दिवाना तू भी दिवाना , यही लगता है मुझे तुझे देखकर ।
मै हूँ नश्वर नारी का दीवाना , फिर भी मुझको जग नहीं दिखता ।
तू तो है उस प्रभु का दीवाना , फिर भी तुझको चादर दिखता ?
समझ गया मै उसकी बात , प्रभु ने मारी मेरे अहम् पे लात ।
व्यर्थ था आगे करना उससे , अब किसी तरह को कोई बात ।
प्रभु की लगन अगर है दिल में , क्यों हम करे दिखावा जग में ।
क्यों भाग कर जाये हम जग से , रहें प्रेम से क्यों न जग में ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
4 टिप्पणियां:
आदरणीय विवेक मिश्र जी
नमस्कार !
बहुत ही सुंदर .....प्रभावित करती बेहतरीन पंक्तियाँ ....
बेहद खूबसूरत आपकी लेखनी का बेसब्री से इंतज़ार रहता है, शब्दों से मन झंझावत से भर जाता है यही तो है कलम का जादू बधाई
......श्रावण मास की हार्दिक शुभकामनायें !
जय भोलेनाथ
सच्ची प्रेम और श्रद्धा में दिखावा नहीं ही होता है ....प्रेरक विचार
जी आपने सही कहा | संसार में रहकर ईश्वर का ध्यान करना ही उत्तम है क्योंकि सारे लोग सन्यासी नहीं हो सकते परन्तु सन्यास परम्परा का अपना अलग ही महत्त्व है |
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